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भट्ट अकलंक ]
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[ भट्टनायक
मिलते हैं । 'शाटघायन ब्राह्मण' नहीं मिलता, किंतु इसके ७० उद्धरण प्राप्त होते हैं । अन्य महत्वपूर्ण अनुपलब्ध ब्राह्मणों के नाम इस प्रकार हैं- भालविब्राह्मण । यह सामवेदीय ब्राह्मण था जिसका निर्देश 'काशिका' (४/२/६६, ४।३।१०५) तथा 'महाभाष्य ४।२।१०४ में उपलब्ध है । जैमिनीय तलवकार ब्राह्मण ( सामवेदीय जैमिनी शाखा से सम्बद्ध, इसके उद्धरण प्राप्त नहीं होते । आह्वरक ब्राह्मण, केकति ब्राह्मण, कालग्रनि ब्राह्मण, चरक ब्राह्मण, छागलेय ब्राह्मण, जाबालि ब्राह्मण, पैंगायनि ब्राह्मण, काठक ब्राह्मण, वाण्डिकेय, ओखेय, गालव, तुम्बरु, आरुणेय, सौलभ तथा पराशर ब्राह्मण । [ इन ब्राह्मणों का विवरण डॉ० बटकृष्ण घोष कृत 'कलेक्शन ऑफ फ्राग्मेन्टस् ऑफ लॉस्ट ब्राह्मणाज, कलकत्ता १९३५ तथा पं० भगवद्दत्त रचित 'वैदिक वाङ्मय का इतिहास' भाग २ है ]
अधुना उपलब्ध ब्राह्मणों की संख्या पर्याप्त है और प्रत्येक वेद के पृथक्-पृथक् ब्राह्मण हैं । ऋग्वेद - ऐतरेय एवं शांखायन ब्राह्मण, शुक्ल यजुर्वेद - शतपथ ब्राह्मण, कृष्ण यजुर्वेद - तैत्तिरीय ब्राह्मण, सामवेद – ताण्ड्य षड्विंश, सामविधान, आर्षेय, देवत, उपनिषद् ब्राह्मण, संहितोपनिषद्, वंश ब्राह्मण तथा जैमिनीय ब्राह्मण, अथववेद - गोपथ ब्राह्मण ।
उपर्युक्त सभी ब्राह्मणों का परिचय उनके नामों के सामने देखें । आधारग्रन्थ - वैदिक साहित्य और संस्कृति - पं० बलदेव उपाध्याय |
भट्ट अकलंक — जैनदर्शन के आचार्य । ये दिगम्बर मतावलम्बी जैन आचार्य थे । इनका समय ८ वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है । इनके तीन प्रसिद्ध लघु ग्रन्थ प्राप्त होते हैं-लषीयस्त्रय, न्याय विनिश्चय एवं प्रमाण संग्रह। तीनों ही ग्रन्थों का प्रतिपाद्य जैनन्याय है । इनके अतिरिक्त भट्ट अकलंक ने कई जैन ग्रन्थों का भाष्य भी लिखा है । तत्वार्थसूत्र पर 'राजवार्तिक' तथा आप्तमीमांसा पर 'अष्टशती' के नाम से इन्होंने टीकाग्रन्थ की रचना की है ।
आधारग्रन्थ — भारतीयदर्शन – आचार्य बलदेव उपाध्याय ।
भट्टनायक — काव्यशास्त्र के आचार्य । इन्होंने 'हृदयदर्पण' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया था जो उपलब्ध नहीं होता [ दे० हृदयदर्पण ]। इनके विचार अभिनवभारती व्यक्तिविवेक, काव्यप्रकाश, काव्यानुशान एवं माणिक्यचन्द्र कृत काव्यप्रकाश की संकेत टीका में उद्धृत हैं। इन्होंने भरतकृत 'नाटयशास्त्र' को टीका भी लिखी थी । भरत के रससूत्र के तृतीय व्याख्याता के रूप में भट्टनायक का नाम आता है । इन्होंने रसविवेचन के क्षेत्र में 'साधरणीकरण' के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास में युगप्रवर्तन किया है। इनका समय नवम शतक का अन्तिम चरण या दशम शतक का प्रथम चरण है । इनके रसविषयक सिद्धान्त को मुक्तिवाद कहते हैं जिसके अनुसार न तो रस की उत्पत्ति होती है और न अनुमिति बल्कि मुक्ति होती है । इन्होंने रस की स्थिति सामाजिकगत मानी है। भट्टनायक के अनुसार शब्द की तीन शक्तियाँ हैंअभिधा, भावकत्व एवं भोजकत्व । इनके मतानुसार अभिधा से काव्य के जिस अर्थ का ज्ञान होता है 'उसे शब्द का 'भावकत्व' व्यापार परिष्कृत कर सामाजिक के उपयोग के
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