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________________ ( २७६ ) [पाणिनि व्याप्त होकर स्थिर रहने वाला है । वह निरवद्य एवं निर्विकार होता है तथा देश, काल एवं आकार से रहित होने के कारण पूर्ण, नित्य एवं व्यापक होता है। वह भगवान, वासुदेव और परमात्मा के नाम से विख्यात है। पाडगुण्य योग के कारण उसे भगवान्, समस्त भूतों में निवास करने के कारण वासुदेव तथा सभी आत्माओं में श्रेष्ठ होने के कारण परमात्मा कहते हैं। पाञ्चरात्र में परब्रह्म सगुण एवं निर्गुण दोनों ही रूपों में स्वीकृत है। वह न तो भूत है और न भविष्य और न वत्तंमान ही। सर्वद्वन्द्वविमिमुक्तं सर्वोपाधिविवर्जितम् । षाडगुण्यं तत् परं ब्रह्म सर्वकारणकारणम् ॥ अहि० सं० २०५३ परब्रह्म के छह गुण हैं-ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य, बल, वीयं तथा तेज । भगवान् की शक्ति को लक्ष्मी कहते हैं। दोनों का सम्बन्ध आपाततः अद्वैत प्रतीति का माना जाता है, पर वस्तुतः दोनों में अद्वैत नहीं होता। भगवान् संसार के मंगल के लिए अपने को चार रूपों में प्रकट करते हैं-व्यूह, विभव, अर्चावतार एवं अन्तर्यामी । संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध भगवान के तीन रूप हैं। संकर्षण में ज्ञान एवं बल की प्रधानता होती तो प्रद्युम्न में ऐश्वयं एवं वीर्य का प्राधान्य होता है तथा अनिरुद्ध में शक्ति और तेज विद्यमान रहते हैं। संकर्षण जगत् की सृष्टि कर पाचरात्र का उपदेश देते हैं । प्रद्युम्न पाल्चरात्र-सम्मत क्रिया की शिक्षा देते हैं और अनिरुद्ध मोक्ष-तत्व की शिक्षा प्रदान करते हैं। विभव अवतार को कहते हैं जिनकी संख्या ३९ मानी गयी है। विभव के दो प्रकार हैं-मुख्य और गौण। मुक्ति के निमित्त 'मुख्य' की उपासना होती है और 'गौण' की पूजा का उद्देश्य 'मुक्ति' है। अर्चावतार भगवान की मूर्ति की पूजा को कहते हैं । भगवान् का समस्त प्राणियों के हृत्पुण्डरीक में निवास करना ही अन्तर्यामी रूप है। इस संसार को भगवान् की लीला का विलास माना गया है और उनकी संकल्प-शक्ति को सुदर्शन कहते हैं जो अनन्त रूप होने पर भी पांच प्रकार का है। सुदर्शन की पांच शक्तियाँ हैं-उत्पत्ति, स्थिति एवं विनाशकारिणी शक्ति, निग्रह तथा अनुग्रह । जीवों की दीन-हीन अवस्था को देख कर भगवान् उन पर करुणा की वर्षा करते हैं। इसी स्थिति में जीव वैराग्य तथा विवेक की ओर अग्रसर होकर मोक्ष की प्राप्ति करता है । पाचरात्र का प्रधान साधन भक्ति मानी गयी है। शरणागति के द्वारा ही भगवान् की अनुग्रहण. शक्ति उद्दीप्त होती है। शरणागति ६ प्रकार की है-आनुकूल्यसंकल्प, प्रातिकूल्यवर्जन, रक्षिष्यतीति विश्वासः, गोप्तृत्ववरणं, आत्मनिक्षेप एवं कार्पण्य । भक्त को 'पञ्चकालज्ञ' कहा जाता है। वह अपने समय को पांच भागों में विभक्त कर भगवान की आराधना या पूजा करता रहता है। उपासना के द्वारा ही भक्त 'मोक्ष' की प्राप्ति करता है और भगवान् में मिलकर तदाकार हो जाता है। इससे उसे संसार में पुनः नहीं आना पड़ता। मुक्ति को 'ब्रह्माभावापति' भी कहते हैं। आधारग्रन्थ-भारतीयदर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय । पाणिनि-ये संस्कृत के विश्वविख्यात वैयाकरण हैं, जिन्होंने 'अष्टाध्यायी' नामक अद्वितीय व्याकरण-ग्रन्थ की रचना की है [ दे० अष्टाध्यायी] । पाश्चात्य एवं अन्य आधुनिक भारतीय विद्वानों के अनुसार इनका समय ई० पू० ७०० वर्ष है किन्तु पं० युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार पाणिनि वि० पू० २९०० वर्ष में हुए थे । अद्यावधि इनका
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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