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________________ न्याय-प्रमाण-मीमांसा] ( २५७ ) [न्याय-प्रमाण-मीमांसा ग. उपमान-उपमान न्यायशास्त्र का तृतीय प्रमाण है। 'प्रसिद्ध साधयं (समानता) से साध्य के साधने को उपमान कहते है ।' अत्यन्त सादृश्य तथा अल्प सादृश्य से उपमान की सिद्धि नहीं होती तथा प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की सिद्धि होने के कारण उपमान भी अनुमान का ही एक रूप है । [ दे० दर्शन-संग्रह पृ० १२७, डॉ. दीवानचन्द ] इसमें पूर्वानुभूत पदार्थ के सादृश्य के कारण नये पदार्थ का ज्ञान होता है। जैसे; कहा जाय कि गो को सदृश गवय (नीलगाय) होता है, तो उपमान होगा। इसका आधार समानता है। घ. शब्द-आप्त पुरुष ( प्रसिद्ध पुरुष ) के वाक्य को शब्द कहते हैं । सूत्रकार के अनुसार 'आप्त का उपदेश शब्द है'। यथाभूत अर्थ का उपदेश करनेवाला पुरुष आप्त कहा जाता है, और उसके वाक्य को शब्द प्रमाण कहते हैं। शब्द दो प्रकार के हैंवैदिक और लौकिक । वैदिक शब्द ईश्वर के वचन माने गए हैं अतः वे निर्दोष तथा निर्धान्त हैं, पर लौकिक शब्द सभी सत्य नहीं होते। वे ही लौकिक शब्द सत्य हो सकते हैं जो किसी विशिष्ट अधिकारी या आप्त पुरुष द्वारा कथित हों। आत्मा और मोक्ष-न्यायदर्शन का उद्देश्य है जीवात्मा को यथार्थ ज्ञान एवं मोक्ष प्रदान करना । इसमें आत्मा सम्बन्धी मत 'वस्तुवादी' है। इसके अनुसार आत्मा एक प्रकार का द्रव्य है जिसमें बुद्धि ( ज्ञान ) सुख-दुःख, राग-द्वेष, इच्छा, कृति, प्रयत्न आदि गुण के रूप में विद्यमान रहते हैं । ये गुण जड़ द्रव्यों के गुण से भिन्न होते हैं। भिन्नभिन्न शरीरधारियों में आत्मा भिन्न-भिन्न होती है; क्योंकि इनके अनुभव परस्पर भिन्न होते हैं । कतिपय प्राचीन नैयायिकों के अनुसार आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति का होना संभव नहीं है । इसका ज्ञान दो प्रकार से होता है-आप्तवचन के द्वारा तथा इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख तथा बुद्धि आदि उसके प्रत्यक्ष गुणों के द्वारा। इसीसे आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है । नव्यनैयायिकों के मतानुसार मानस प्रत्यक्ष के द्वारा ही बात्मा का ज्ञान होता है। मुक्ति या अपवर्ग-नैयायिकों के अनुसार दुःख से पूर्ण निरोध की अवस्था को अपवर्ग या मोक्ष कहते हैं, जिसमें शरीर तया इन्द्रियों के बन्धन से आत्मा को पूर्ण मुक्ति प्राप्त होती है । मोक्ष की स्थिति में आत्मा का सुख-दुःख के साथ सम्पर्क हट जाता है तथा दुःख का सदा के लिए विनाश हो जाता है। जब तक आत्मा शरीर से युक्त रहता है तब तक उसे दुःख से छुटकारा नहीं मिलता और न दुःख का पूर्ण विनाश ही संभव है। इसलिए मोक्ष की प्राप्ति के लिए शरीर तथा इन्द्रियों के बंधन से छुटकारा पाना आवश्यक है। मोक्ष-प्राप्ति के साधन हैं-धर्मग्रन्थों के आत्मविषयक उपदेश, श्रवण, मनन और निदिध्यासन । इन साधनों से मनुष्य आत्मा से शरीर को भिन्न समझते हुए वासनाओं तथा कुप्रवृत्तियों से दूर हो जाता है और उनका इस पर प्रभाव नहीं पड़ता। इस स्थिति में वह सारा काम निष्काम भाव से करता है और अन्ततः संचित कर्मों का फल भोगते हुए जन्म-ग्रहण के चक्र से मुक्त हो जाता है और दुःख का सदा के लिए अन्त हो जाता है । मुक्ति के लिए योग का भी अभ्यास आवश्यक है। १७ सं० सा०
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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