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________________ नाट्यशास्त्र ] ( २३८ ). [ नाट्यशास्त्र प्रयोग कर के प्राकृत बोलते हैं । कवि ने पात्रानुकूल भाषा का संवादकला का सुन्दर नियोजन किया है । 'शाकुन्तल' के षष्ठ अंक प्रवेशक के अतिरिक्त सभी जगह शौरसेनी प्राकृत प्रयुक्त हुई है और छठे अंक में मागधी प्राकृत का प्रयोग हुआ है । 'विक्रमोर्वशीय' में - पुरुरवा के प्रलाप में कई स्थानों पर अपभ्रंश की भी छाया दिखाई पड़ती है । कालिदास के नाटकों में सर्वत्र वैदर्भी रीति प्रयुक्त हुई है और ये उसके सिद्धहस्त लेखक हैं । नाट्यशास्त्र - यह भारतीय नाट्यशास्त्र एवं काव्यशास्त्र का आद्य ग्रन्थ है । इसके रचयिता आ० भरत हैं [ दे० भरत ]। इसके रचनाकाल के संबंध में विद्वानों में मतभेद है, फलतः इसका समय वि० पू० पंचम शताब्दी से लेकर विक्रम की प्रथम शताब्दी तक माना जाता है । प्राचीन ग्रन्थों में 'नाट्यशास्त्र' के दो नाम मिलते हैं - षट्साहस्त्री एवं द्वादशसाहस्री | सम्प्रति 'नाट्यशास्त्र' का षट्साहस्री रूप ही उपलब्ध है जिसके कुछ संस्करणों में ३७ अध्याय एवं कुछ में ३६ अध्याय हैं । 'नाट्यशास्त्र' में न केवल नाट्यनियमों का अपितु उससे सम्बन्ध रखने वाली सभी कलाओं का प्रतिपादन किया गया है । अर्थात् नाट्यकला, नृत्यकला, संगीतशास्त्र, छन्दः शास्त्र, अलंकार-विधान, रस-निरूपण तथा रंग-निर्माण आदि सभी विषय इसमें वर्णित हैं । स्वयं नाट्यशास्त्र में भी इस तथ्य का उल्लेख है न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला । न स योगो न तत्कमं यन्नाट्येऽस्मिन्न दृश्यते ॥ १।११६ ॥ इसके वयं विषय की सूत्री इस प्रकार है - इसके प्रथम एवं द्वितीय अध्याय में क्रमशः नाट्योत्पत्ति तथा नाट्यशाला का और तृतीय अध्याय में रंगदेवता का पूजन-प्रकार वर्णित है । चतुर्थ अध्याय में ताण्डब सम्बन्धी १०८ करण ९२ प्रकार के अंगहार और चार प्रकार के रेचकों का वर्णन है और पंचम अर्ध्याय में पूर्वरंग की विधि का विवेचन किया गया है । षष्ठ एवं सप्तम अध्याय में रस का विस्तृत विवेचन एवं आठवें अध्याय में चार प्रकार के अभिनय - आंगिक, वाचिक, सात्त्विक तथा आहार्य - वर्णित हैं। नवम अध्याय में हस्ताभिनय बौर दशम में शरीराभिनय का एवं एकादश तथा द्वादश अध्यायों में चारी तथा मण्डल की विधि का वर्णन है । त्रयोदश अध्याय में रसानुकूल गति प्रचार का तथा चतुर्दश, पंचदश एवं सोलहवें अध्याय में वाचिक अभिनय का वर्णन है और सोलहवें अध्याय में ही छन्द का निरूपण किया गया है। सत्रहवें अध्याय में प्राकृत आदि भाषाओं का तथा अठारहवें अध्याय में 'दशरूपक' का लक्षण है। उन्नीसवें अध्याय में नाट्य सन्धियों का और बीसवें में भारती, सारस्वती, आरभटी और कैशिकी वृत्तियां वर्णित हैं। इक्कीसवें अध्याय में आहार्याभिनय का एवं बाईसर्वे में सामान्याभिनय का विधान है। इसी अध्याय में नायक-नायिका भेद का भी वर्णन है। तेईसवें अध्याय में वेश्या तथा वैशिक लोगों का एवं चौबीसवें में तीन प्रकार के पात्रोंउत्तम. मध्यण एवं अधम का वर्णन है। पच्चीसवें अध्याय में चित्राभिनय और
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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