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________________ त्रिविक्रमभट्ट ] ( २०७ ) [ त्रिविक्रमभट्ट हुआ है जिसमें लेखक के रूप में नेमादित्य तनयं त्रिविक्रमभट्ट का नाम है । इन प्रमाणों के आधार पर त्रिविक्रमभट्ट का समय दशम शताब्दी का प्रथमाधं निश्चित होता है । त्रिविक्रमभट्ट इन्द्रराज तृतीय के सभापण्डित थे । इन्द्रराज के सम्बन्ध में दो शिलालेख गुजरात में एवं एक शिलालेख महाराष्ट्र में भी प्राप्त हुआ है । इतिहास के विविध ग्रन्थों में भी इन्द्रराज तृतीय का विवरण प्राप्त होता है । [ दे० श्री विश्वनाथ रेऊ रचित 'भारत के प्राचीन राजवंश' ( राष्ट्रकूट ) भाग ३ पृ० ५०-५२ ] इन्द्रराज तृतीय ने अपने राज्याभिषेक के अवसर पर अनेक प्रकार के दान दिये थे उनका उल्लेख अभिलेख में किया गया है तथा इन प्रशस्तियों के लेखक त्रिविक्रम भट्ट ही बताये गए हैंश्री त्रिविक्रम भट्टेन नेमादित्यस्य सूनुना । कृता शस्ता प्रशस्तेयमिन्द्रराजाङ्घ्रिसेवया ॥ इन्द्रराज की प्रशस्ति के साम्य रखती हैकृतगोवर्धनोद्धार - हेलोन्मूलित मेरुणा । उपेन्द्रमिन्द्रराजेन जित्वा येन न विस्मितम् ॥ त्रिविक्रम भट्ट के नाम पर दो ग्रन्थ प्रचलित हैं - 'मदालसाचम्पू' एवं 'नलचम्पू' । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर दोनों का लेखक एक ही व्यक्ति सिद्ध नहीं होता । 'नलचम्पू' की शैली श्लेष-प्रधान है पर 'मदालसाचम्पू' में इलेष का अभाव है ! 'नलचम्पू' उच्छ्वासों में विभक्त है और 'मदालसाचम्पू' का विभाजन उल्लास में किया गया है । 'मलचम्पू' में ग्रन्थकार ने अपने गोत्रादि का परिचय दिया है पर 'मदालसाचम्पू' में इस प्रकार के कोई संकेत नहीं हैं। नौसारी का शिलालेख, जिसमें त्रिविक्रमभट्ट ने अपने बादाता का प्रशस्तिगान किया है, रचना - शैली की दृष्टि से उत्तम काव्य का रूप प्रस्तुत करता है और उसकी शैली 'नलचम्पू' से मिलती-जुलती है । श्लोक की श्लेषमयी शैली 'नलचम्पू' के श्लेषबहुल पद्यों से जयति विबुधबन्धुविन्ध्यविस्तारिवक्षः - स्थलविमलविलोलस्कौस्तुभः कंसकेतुः । मुखसर सिजरङ्गे यस्य नृत्यन्ति लक्ष्म्याः स्मरभरपरिताम्यतारकास्ते कटाक्षाः ॥ 'नलचम्पू' में महाराज नल एवं दमयन्ती के प्रणय का वर्णन है। उच्छ्वासों में है । इसमें नल की सम्पूर्ण जीवन-गाथा न होकर अधूरा तथा ग्रन्थ बीच में ही समाप्त हो जाता है । नल द्वारा देवताओं का को सुनाने तक की कथा ही इसमें वर्णित है। पंडितों में 'नलचम्पू' के अधूरा रहने की एक किम्वदन्ती प्रचलित है । "किसी समयं समस्त शास्त्रों में निष्णात देवादित्य नाम के राजपण्डित थे । उनका लड़का त्रिविक्रम था । प्रारम्भ में उसने कुकर्म ही सीखे थे किसी शास्त्र का अभ्यास नहीं किया था । एक समय किसी कार्यवश देवादित्य दूसरे गाँव चले गए । राजनगर में उनकी अनुपस्थिति जान कर एक विद्वान् राजभवन आया और राजा से कहा, राजन मेरे साथ किसी विद्वान् से शास्त्रार्थ कराइये, अन्यथा मुझे विजय-पत्र दीजिए ।' राजा ने दूत को आदेश दिया कि वह देवादित्य को बुला लाये । राजदूत के द्वारा जब यह ज्ञात हुआ कि देवादित्य कहीं बाहर गए हैं तो उसने उनके पुत्र त्रिविक्रम को ही शास्त्रार्थ के लिये यह ग्रन्थ सात जीवन चित्रित है सन्देश दमयन्ती
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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