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________________ तैत्तिरीय-उपनिषद् ] (२०४ ) [तैत्तिरीय प्रातिशास्म सना का वर्णन है तथा द्वितीय में स्वाध्याय और पञ्चमहायज्ञ वर्णित हैं। इस प्रपाठक में गंगा-यमुना के मध्य देश की पवित्रता स्वीकार कर मुनियों का निवास स्थान बतलाया गया है। तृतीय प्रपाठक में चतुर्होत्र चिति के उपयोगी मंत्र वर्णित हैं तथा चतुर्थ में प्रवयं के उपयोग में आनेवाले मंत्रों का चयन है । इसमें शत्रु का विनाश करने के लिये अभिचार मंत्रों का भी वर्णन है। पन्चम में यज्ञीय संकेत एवं षष्ठ में पितृमेधविषयक मन्त्र हैं। इसका प्रकाशन १८९८ ई० में पूना, आनन्दाश्रम सीरीज से हुआ है जिसके सम्पादक हैं एच्. एन्आप्टे। तैत्तिरीय-उपनिषद-यह उपनिषद 'कृष्ण यजुर्वेद' की तैत्तिरीय शाखा के अन्तर्गत तैत्तिरीय आरण्यक का अंश है। 'तैत्तिरीय आरण्यक' में दस प्रपाठक या अध्याय हैं एवं इसके सातवें, आठवें एवं नवें अध्याय को ही तैत्तिरीय उपनिषद् कहा जाता है। इसके तीन अध्याय क्रमशः शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दबल्ली एवं भृगुवल्ली के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसका सम्पूर्ण भाग गद्यात्मक है। 'शिक्षाबली' नामक अध्याय में वेद मन्त्रों के उच्चारण के नियमों का वर्णन है तथा शिक्षा समाप्ति के पश्चात् गुरु द्वारा स्नातकों को दी गई बहुमूल्य शिक्षाओं का वर्णन है। 'ब्रह्मानन्दबड़ी' में ब्रह्मप्राप्ति के साधनों का निरूपण एवं ब्रह्मविद्या का विवेचन है । प्रसंगवशात् इसी बही में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय इन पञ्चकोशों का निरूपण किया गया है । इसमें बताया गया है कि ब्रह्म हृदय की गुहा में ही स्थित है अतः मनुष्यों को उसके पास तक पहुंचने का मार्ग खोजना चाहिए; किन्तु वह मागं तो अपने ही भीतर है। ये मार्ग हैं-पंचकोश या शरीर के भीतर एक के अन्दर एक पांच कोठरियाँ । अन्तिम कोठरी अर्थात् आनन्दमय कोश में ही ब्रह्म का निवास है जहां पहुंच कर जीव रस को प्राप्त कर आनन्द का अनुभव करता है। 'भृगुवली' में ब्रह्मप्राप्ति का साधन तप एवं पञ्चकोषों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इस अध्याय में अतिथि-सेवा-महत्त्व एवं उसके फल का वर्णन भी है। इसमें ब्रह्म को आनन्द मान कर सभी प्राणियों की उत्पत्ति आनन्द से ही कही गई है। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य-इस प्रातिशाख्य का सम्बन्ध 'तैत्तिरीय संहिता' के साथ है। यह दो खण्डों में विभाजित है एवं प्रत्येक में १२ अध्याय हैं । इस ग्रन्थ की रचना सूत्रात्मक है । प्रथम प्रश्न या अध्याय में वर्ण-समाम्नाय, शब्दस्थान, शब्द की उत्पत्ति अनेक प्रकार की स्वर एवं विसर्ग सन्धि तथा मूयंन्य-विधान का विवेचन है। द्वितीय प्रश्न में णत्वविधान, अनुस्वार, अनुनासिक, अननुनासिक, स्वरितभेद तथा संहितारूप का विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसपर अनेक व्याख्याएँ प्राप्त होती हैं जिनमें तीन प्रकाशित हो चुकी हैं। माहिषय कृत 'पाठक्रम सदन', सोमचार्य कृत 'त्रिभाष्यरत्न' तथा गोपालयज्वा कृत "वैदिकाभरण'। इनमें प्रथम भाष्य प्राचीनतम है। क-इसका प्रकाशन विटनी द्वारा सम्पादित 'जनल ऑव द अमेरिकन ओरियण्टल सोसाइटी, भाग ९, १८७१ में हुआ था। ख-रंगाचार्य द्वारा सम्पादित, मैसूर से प्रकाशित १९०६।
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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