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________________ जैन मेघदूत ] ( १९९) [जैन मेघदूत परमात्मा की अनादि सिद्ध सत्ता के प्रति वह अविश्वास प्रकट करता है। इस मत में अनेक ईश्वर मान्य हैं और इसके अन्तर्गत वे जीव आते हैं जो अहंन्तपद एवं सिवपद को प्राप्त कर लेते हैं। जैनमत में तीर्थकर ही ईश्वर हैं, किन्तु वे लोकप्रसिद्ध ईश्वर नहीं होते। वे संसार से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखते और न तो सृष्टि की रचना करते हैं और न उसका संचालन । तीर्थकर मुक्ति प्राप्त कर संसार के व्यक्तियों को भी मुक्ति का साधन बतलाते हैं। तीर्थकर ईश्वर के ही रूप में पूजित होते हैं क्योंकि उनमें ईश्वर के गुण विद्यमान रहते हैं। ___ आधारग्रन्थ-१. भारतीयदर्शन-(भाग १) डॉ. राधाकृष्णन् (हिन्दी अनुवाद) २. भारतीयदर्शन-डॉ. धी० मो० दत्त (हिन्दी अनुवाद) ३. भारतीयदर्शन-पं० बलदेव उपाध्याय ४. जैनदर्शन-श्री महेन्द्र ५. भारतीयदर्शन-डॉ. उमेश मित्र ६. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान-डॉ० हीरालाल जैन ७. जैन-दर्शन-न्यायविजय ८. सर्वदर्शन-संग्रह-(हिन्दी अनुवाद ) चौखम्बा प्रकाशन अनुवादक श्री उमाशंकर 'ऋषि'। जैन मेघदत-इस सन्देश काव्य के रचयिता जैन विद्वान् मेरुतुज हैं। इनका जन्म सं० १४०३ में मारवाड़ के नाणी ग्राम में हुआ था। ये पोरवाल वंशीय क्षत्रिय थे। इनके पिता का नाम वहोरा वैरसिंह एवं माता का नाम नालदेवी था। इन्होंने सुप्रसिद्ध जैन आचार्य श्री महेन्द्रप्रभसूरि से दीक्षा ली थी। इनका पहला नाम 'वस्तिक' या वस्तपाल था किन्तु दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् ये मेरुतुंग कहलाने लगे। इनका स्वर्गवास वि० सं० सं० १४२६ में पाटन नामक स्थान में हो गया। इनके द्वारा रचित ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं-सप्तिका भाष्यटीका, लधुशतपदी, धातुपारायण, षड्दर्शनसमुच्चय, बालबोधव्याकरण, वृत्ति ( इस व्याकरण की स्वरचित वृत्ति ), सूरिमन्त्रकल्पसारोबार । 'जैन मेघदूत' में नेमिनाथजी (जैन आचार्य) के पास उनकी पत्नी राजीमती के द्वारा प्रेषित सन्देश का वर्णन है । जब नेमिनाथ जी मोक्षप्राप्ति के लिए घर-द्वार त्याग कर रैवतक पर्वत पर चले गए तो इस समाचार को प्राप्त कर उनकी पत्नी मूच्छित हो गयीं। उन्होंने विरह-व्यथा से व्यथित होकर अपने प्राणनाथ के पास सन्देश भेजने के लिए बादल का स्वागत एवं सत्कार किया। सखियों ने उन्हें समझाया और अन्ततः वे वीतराग होकर मुक्ति-पद को प्राप्त कर गयीं। इस काव्य में मन्दाक्रान्ता छन्द का प्रयोग किया गया है जिसकी संख्या १९६ है । सम्पूर्ण काव्य को चार सर्गों में विभक्त किया गया है। अलंकारों की भरमार एवं श्लिष्ट-वाक्य-रंचना के कारण यह अन्य दुरूह हो गया है । इसका प्रकाशन जैन नात्मानन्द सभा, भावनगर से हो चुका है। राजीमती की विरहावस्था का वर्णन देखिए-. एकं तावविरहिहृदयद्रोहकृन्मेषकालो द्वैतीयीकं प्रकृतिगहनो यौवनारम्भ एषः । तार्तीयीकं हृदयदयितः सैष भोगाद् व्यराङ्क्षीत तुर्य न्याय्यान्न चलति पयो मानसं भावि हा किम् ॥ ४ ॥
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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