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जैन साहित्य]
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[जैन साहित्य
स्याद्वाद-जैनमत का यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । इस धर्म में प्रत्येक वस्तु अनेकधर्मक होती है जिसका ज्ञान केवल मुक्त पुरुष को होता है। साधारण मनुष्य के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह प्रत्येक वस्तु के समस्त धर्मों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सके । वह वस्तु का एक ही धर्म जान सकता है। वस्तु के अनेक धर्मों में से एक धर्म का ज्ञान प्राप्त करने को 'नय' कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि दृष्टि-भेद से एक ही वस्तु अनेक प्रकार की दिखाई पड़ती है, एक वस्तु का एक ही रूप एक प्रकार से नहीं रह पाता। इस मत में वस्तु का सत् और असत् ( अभाव ) ऐसा विभाजन नहीं होता। सत को ही द्रव्य कहते हैं, इसमें असत् का स्वतन्त्र रूप नहीं माना जाता। कोई भी वस्तु जो एक दृष्टि से सत् होती है अन्य दृष्टि से असत् भी हो जा उकती है। प्रत्येक वस्तु का स्वभाव भिन्न-भिन्न होता है और वह उसी वस्तु में निहित होता है। अतः संसार में न तो कोई वस्तु सत् है और न असत् । यही सिद्धान्त अनेकान्तवाद के नाम से प्रसिद्ध है और इसी को स्याद्वाद भी कहा जाता है । जैन दार्शनिकों तथा अजैन दार्शनिकों ने स्याद्वाद की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की है। अजैनियों के अनुसार स्यावाद 'संशयवाद' का ही दूसरा नाम है। स्यात् का अर्थ है शायद और इसी अर्थ के आधार पर वे 'संशयवाद' की स्थिति स्वीकार करते हैं। पर जैन दार्शनिकों के आधार 'स्यात्' का अर्थ 'कथंचित्' या 'किसी अपेक्षा से' है। अतः अपेक्षावाद को ही स्यावाद कहा गया है। जैनमत में यह सिद्धान्त मान्य है कि अपेक्षा की दृष्टि से ही संसार की कोई वस्तु सत् और असत् होती है । स्यात् शब्द से यह संकेत होता है कि उसके साथ के प्रयुक्त वाक्य की सत्यता प्रसंगविशेष पर ही निर्भर करती है अन्य प्रसंग में वह मिथ्या भी हो सकता है। उदाहरण के लिए घर के काले रंग के घड़े को देख कर यह नहीं कहा जाय कि यह घड़ा है; अपितु कहना चाहिए कि 'स्यात्' घड़ा है । स्यात् के प्रयोग से यह विदित होगा कि घड़े का अस्तित्व कालविशेष, स्थानविशेष एवं गुणविशेष के अनुसार है तथा उसके प्रयोग से ( स्यात् के ) यह भी भ्रम दूर हो जायगा कि घड़ा नित्य एवं सर्वव्यापी है। घड़ा है कहने पर अनेकशः भ्रान्त ज्ञान होने लगेगा। [दे. भारतीय दर्शन-डॉ. धीरेन्द्रमोहन दत्त, हिन्दी अनुवाद पृ० ५३-५४ ] स्यावाद की अभिव्यक्ति 'सप्तभंगी नय' के द्वारा होती है। जैनियों ने सत्ता के सापेक्षरूप को स्वीकार करने के लिए सात प्रकार का परामर्श माना है, इसे ही 'सप्तभंगी नय' कहते हैं। इन्होंने प्रत्येक नय के साथ स्यात् शब्द जोड़ दिया है तथा यह विचार व्यक्त किया है कि किसी भी नय की सत्यता एकान्त या निरपेक्ष रूप में नहीं है। अतः 'सप्तभंगीनय' में किसी भी पदार्थ के रूप को प्रकट करने के लिए सात प्रकार के ढङ्ग कथित हैं
१-स्यात् अस्ति ( किसी अपेक्षा से कोई वस्तु विद्यमान है)। २-स्यानास्ति (किसी अपेक्षा से कोई वस्तु अविद्यमान है)।
३-स्यादस्ति च स्यानास्ति (किसी अपेक्षा से कोई वस्तु एक साथ विद्यमान और अविद्यमान दोनों है)।