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________________ चम्पूकाव्य का विकास] ( १७३ ) [चम्पूकाव्य का विकास चम्पूकाव्य का विकास-यह काव्य का वह स्वरूप है जिसमें वयं विषय का निरूपण गद्य एवं पद्य की मिश्रित शैली में किया जाता है। सर्वप्रथम दण्डी ने इसकी परिभाषा दी है मिश्राणि नाटकादीनि तेषामन्यत्र विस्तरः। गद्यपद्यमयी काचिच्चम्पूरित्यभिधीयते ॥ काव्यादर्श १०३१ आगे चलकर हेमचन्द्र ने मिश्रशैली के अतिरिक्त चम्पू का सांग एवं सोच्छ्वास होना भी आवश्यक माना है गद्यपद्यमयी सांका सोच्छ्वासचम्पूः ॥ काव्यानुशासन ८.९ विश्वनाथ ने भी गद्यपद्यमयी रचना को चम्पू कहा गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते ।। साहित्यदर्पण ६।३३६ किसी अज्ञात व्यक्ति की परिभाषा में चम्पू काव्य में उक्ति, प्रत्युक्ति एवं विष्कम्भ की शून्यता को सम्मिलित किया गया है गद्यपद्यमयं सांका सोच्छ्वासा कविगुम्फिता । उक्तिप्रत्युक्तिविष्कम्भशून्या चम्पूरुदाहृता । इन सारे लक्षणों के आधार पर चम्पू की निम्नांकित विशेषताएं सूचित की जा सकती हैं-चम्पू का गद्यपद्यमय होना, इसका सांक होना, चम्पू का उच्छ्वासों में विभाजित होना, उक्ति-प्रत्युक्ति का न होना तथा निष्कम्भ शून्यता का होना । चम्पूकाव्य महाकाव्य की भाँति आठ से अधिक परिच्छेदों में भी रचा जा सकता है तथा खण्ड काव्य की तरह इसमें आठ से कम सर्ग भी होते हैं। यह स्तवक, उल्लास या उच्छ्वास में विभक्त होता है। इसके मूल स्रोत पुराण होते हैं, पर सामान्य विषयों का भी वर्णन. किया जा सकता है। संस्कृत के चम्पूकारों ने वर्णन विस्तार की ओर अधिक ध्यान दिया है, वस्तुविवेचन पर कम। इसका नायक देवता, गन्धर्व, मानव, पक्षी पशु कोई भी हो सकता है। इसके एक से अधिक नायक भी हो सकते हैं तथा नायकों के गुण लक्षण ग्रन्थों में वर्णित गुणों के ही समान हैं। चम्पू काव्य के लिए नायिका का होना आवश्यक नहीं है। इसमें पात्रों की संख्या का कोई नियम नहीं है तथा कवि का ध्यान मुख्य पात्र के चरित्र-निरूपण की ही ओर अधिक होता है। इसका अंगीरस शृङ्गार, वीर एवं शान्त में से कोई भी हो सकता है तथा अन्य रसों का प्रयोग गौण रूप से होता है। चम्पू में गद्य-पद्य दोनों में ही अलंकरण की प्रवृति होती है तथा गद्य वाला अंश समासबहुल होता है। इसमें वर्णिक एवं मात्रिक दोनों ही प्रकार के छन्द प्रयुक्त होते हैं तथा कहीं-कहीं गीतों का भी प्रयोग हो सकता है। महाकाव्य की तरह चम्पूकाव्य में भी मंगलाचरण, खलनिन्दा एवं सज्जनों की स्तुति होती है। इसमें फलश्रुति एवं भरतवाक्य या मंगलवाक्य का भी विधान किया जाता है। ___चम्पू काव्य का विकास-संस्कृत में गद्यपद्य मिश्रितशैलीका प्रारम्भ वैदिक साहित्य से ही होता है। 'कृष्णयजुर्वेद' की तीनों ही शाखाओं में गद्यपद्य का निर्माण है। 'अथर्ववेद' का छठा अंश गद्यमय है । ब्राह्मणों में प्रचुर मात्रा में गद्य का प्रयोग मिलता है तथा उपनिषदों में भी गद्य-पद्य का मिश्रण है। प्रारम्भ में (संस्कृत में ) मिश्रशैली
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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