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________________ गीता] ( १६५ ) [गीता जाता 'क्षेत्रज्ञ' कहा जाता है। "यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है । अथवा यह होकर फिर न होगा, ऐसा भी नहीं है। शरीर का नाश होने पर इसका नाश नहीं होता ।" २।२०।। - गीता आत्मा को अमर और सनातन मानती है । यह अनादि, अखण्ड, कालावाधित और स्वयम्भू है। शरीर अस्थायी एवं क्षणिक है पर आत्मा अजर और अमर । जीव नाना होकर भी एक है। जिस प्रकार मनुष्य जीणं वस्त्र को उतार कर नवीन वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार जीव प्रारब्ध भोग के द्वारा जीणं शरीर का त्याग कर नवीन शरीर प्राप्त करता है। स्वयं अविकार, अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य, अशोज्य तथा नित्य, सर्वव्यापी अचल एवं सनातन है । जीव परमेश्वर का ही सनातन अंश है ___ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ॥ १५७ जगत् तत्त्व-जगत् की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय के कारण भगवान् हैं। भगवान् ही सब भूतों के सनातन बीज हैं। जिस प्रकार बीज वृक्ष से उत्पन्न होकर पुनः बीज में ही विलीन हो जाता है, उसी प्रकार यह जगत् भी भगवान् से उत्पन्न होकर उसमें ही लीन हो जाता है। गीता सांख्य के प्रतिकूल भगवान् को ही प्रकृति का अध्यक्ष स्वीकार करती है। इसके अनुसार जगत् न तो काल्पनिक है और न मायिक ही अपितु यह सत्य और यथार्थ है। - गीता और सांख्ययोग-गीता भिन्न-भिन्न भारतीय मार्गों का समन्वय उपस्थित करती है । इसके अनुसार सांख्य और योग में भेद नहीं है, दोनों एक हैं। कृष्ण ने अपने को व्यास और कपिल दोनों कहा है। १३ वें अध्याय में प्रकृति और पुरुष को 'क्षेत्र' तथा 'क्षेत्रज्ञ' कहा गया है एवं दोनों के ज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान माना गया है। सांख्य में पुरुष और प्रकृति में भेद माना गया है तथा मूल प्रकृति को एक मान कर पुरुष बहुत्व की कल्पना की गयी है। गीता में भी सर्वत्र पुरुष बहुत्व मान्य है तथा कहा गया है कि प्रकृति का विकास गुणों का सामंजस्य टूटने से होता है । पुरुष और प्रकृति के भेद को स्वीकार कर बताया गया है कि प्रकृति के संयोग से पुरुष स्वयं बन्धन में पड़ जाता है। गीता पुरुष और प्रकृति में भेद करने को ही बन्धन से छूटना मानती है । ___गीता और योग-अर्जुन कृष्ण को योगी कह कर सम्बोधित करते हैं तथा उन्हें योगेश्वर भी कहा गया है। कृष्ण ने अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहा है कि "अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ, सब भूतों का आदि, मध्य और अन्त मैं ही हूँ।" योग-दर्शन में यम और नियम को योग का प्राथमिक तत्त्व माना गया है। गीता भी देवी सम्पत्ति वालों के गुणों का वर्णन करते समय यम और नियम को सम्मिलित करती है तथा मन को काबू में लाने के लिए अभ्यास और वैराग्य का सहारा लेती है । योग-दर्शन और गीता में अन्तर यह है कि पतंजलि ने ने ध्यान को कम से ऊंचा स्थान दिया है जबकि गीता में निष्काम कर्म को ज्ञान तथा ध्यान से बढ़कर माना गया है। गीता कर्म-फल-त्याग पर बल देती है। गीता और मीमांसा-पूर्वमीमांसा की भांति गीता में भी धर्मतत्त्व पर विचार किया
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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