________________
ऐतरेय उपनिषद् ]
( ९१ )
[ऐतरेय ब्राह्मण
ग-आर० मित्र द्वारा सम्पादित एवं बिब्लोथिका इण्डिका, कलकत्ता से १८७६ ई० में प्रकाशित।
आधारग्रन्थ--- वैदिक साहित्य और संस्कृति-आ० बलदेव उपाध्याय ।
ऐतरेय उपनिषद्-यह ऋग्वेदीय ऐतरेय आरण्यक के द्वितीय आरण्यक का चौथा, पाँचवाँ और छठा अध्याय है । इसमें तीन अध्याय हैं और सम्पूर्ण ग्रन्थ गद्यात्मक है। एकमात्र आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन ही इसका प्रतिपाद्य है। प्रथम अध्याय में विश्व की उत्पत्ति का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि आत्मा से ही सम्पूर्ण जड़चेतनात्मक सृष्टि की रचना हुई है। प्रारम्भ में केवल आत्मा ही था और उसी ने सर्वप्रथम सृष्टि-रचना का संकल्प किया। १।१२ ___ द्वितीय अध्याय में जन्म, जीवन एवं मृत्यु मनुष्य की तीन अवस्थाओं का वर्णन है। अन्तिम अध्याय में 'प्रज्ञान' की महिमा का बखान करते हुए आत्मा को उसका (प्रज्ञान ) रूप माना गया है। यह प्रज्ञान ब्रह्म है ।
... प्रज्ञाननेत्रो लोकः । प्रज्ञा प्रतिष्ठा । प्रज्ञानं ब्रह्म । ५।३ मानव में आत्मा के प्रवेश का इसमें सुन्दर वर्णन है। परमात्मा ने मनुष्य के शरीर की सीमा ( शिर ) को विदीर्ण कर उसके शरीर में प्रवेश किया। उस द्वार को 'विदृति' कहते हैं। यही आनन्द या ब्रह्म-प्राप्ति का स्थान है ।
आधारग्रन्थ-वैदिक साहित्य और संस्कृति-पं० बलदेव उपाध्याय ।
ऐतरेय ब्राह्मण-यह ऋग्वेद से सम्बद्ध ब्राह्मण है। इसके रचयिता हैं ऋषि महिदास ऐतरेय । ऐतरेय का अर्थ है ऋत्विज् । इसमें ४० अध्याय हैं, जो पांच-पांच परिच्छेदों की आठ पचिकाओं में विभक्त हैं। इसमें कण्डिकाओं की संख्या २८५ है तथा होत नामक ऋत्विज के विशेष कार्यों का वर्णन किया गया है । प्रथम और द्वितीय पन्चिका में 'अग्निष्टोम' यज्ञ में होतृ के विधि-विधान एवं कर्तव्य वर्णित है। तृतीय और चतुर्थ पन्चिका में प्रातः सायं सवन विधि देकर अग्निहोत्र का प्रयोग बतलाया गया है। इनके अतिरिक्त अग्निष्टोम की विकृतियों-उक्थ, अतिरात्र एवं षोडशी-नामक यागों का भी संक्षिप्त विवेचन है। चतुर्थ पञ्चिका में द्वादशाह यागों का एवं षष्ठ में सप्ताहों तक समाप्त होने वाले सोम यागों एवं उनके होता तथा सहायक ऋत्विजों के कार्य वणित हैं। सप्तम पन्चिका में राजसूय का वर्णन एवं शुनःशेप की कहानी दी गयी है । अष्टम पन्चिका ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें 'ऐन्द्र
महाभिषेक' का वर्णन करते हुए चक्रवर्ती राजाओं के महाभिषेक का वर्णन किया गया । है । इस ग्रन्थ का प्रधान विषय सोमयाग का प्रतिपादन है । इसमें अग्निहोत्र एवं राजसूय
का भी विवेचन किया गया है। इसके अन्तिम १० अध्याय प्रक्षिप्त माने जाते हैं। इस पर तीन भाष्य लिखे गए हैं-सायणकृत भाष्य ( यह आनन्दाश्रम संस्कृत सीरीज, पूना से प्रकाशित है),. षड्गुरुशिष्य-रचित 'सुखप्रदा' नामक लघुव्याख्या ( इसका प्रकाशन अनन्तशयन ग्रन्थमाला सं० १४९ त्रिवेन्द्रम से १९४२ ई० में हुआ है), गोविन्द स्वामी की व्याख्या ( अप्रकाशित )।
आधारग्रन्थ-वैदिक साहित्य और संस्कृति-पं० बलदेव उपाध्याय ।