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________________ पीहर गई हुई थी तो उसकी याद में अरुणदेव उदास रहने लगा। महेश्वरदत्त ने मित्र को उदास देखा तो कहा, मित्र ! उदास क्यों बनते हो ! पाटलिपुत्र है ही कितना दूर, चलिए हम भाभी को ले आते हैं। इस पर अरुणदेव ने कहा, हमें अवश्य ही पाटलिपुत्र चलना चाहिए। पर हम ठहरे वणिक पुत्र, ऐसा कुछ करेंगे कि तुम्हारी भाभी को भी ले आएं और लाभ भी कमा लाएं। इसलिए हमें जहाजों में माल भरकर पाटलिपुत्र चलना चाहिए। महेश्वरदत्त को भी अरुणदेव की बात जंच गई। दोनों मित्रों ने जहाजों में माल भरा और पाटलिपुत्र के लिए चल दिए। पर व्यक्ति जो सोचता है, वैसा ही नहीं होता है। उसकी सोच के विपरीत भी बहुत कुछ होता है। वैसा ही हुआ। सागर में तूफान जाग उठा। जहाज जल में विलीन हो गए। पुण्योदय से काष्ठफलक के सहारे अरुणदेव और महेश्वरदत्त पांच दिन बाद किनारे पर आ लगे। सौभाग्यवश यह पाटलिपुत्र का ही तट था। दोनों मित्र नगर में गए। अरुणदेव ने इस दीन दशा में ससुराल जाना उचित नहीं समझा। वह एक उद्यान में लेट गया और महेश्वरदत्त खाने के लिए सामग्री लेने नगर में चला गया। उधर ऐसा संयोग घटित हुआ कि देयिणी उद्यान भ्रमण के लिए वहां आई। एक चोर ने कंगणों के लोभ में देयिणी के दोनों हाथ काट दिए और एक दिशा में भागा। देयिणी ने शोर मचाया तो चोर भयभीत बन गया। वह उद्यान के कोने में सो रहे अरुण देव के निकट तलवार और कंगण फैंककर चम्पत हो गया। उद्यान रक्षकों ने अरुण देव को पकड़कर राजा के समक्ष पेश किया। राजा ने उसे शूली का दण्ड दिया। उधर महेश्वरदत्त उद्यान में पहुंचा तो उसे वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ। वह दौड़कर उस स्थान पर पहुंचा, जहां अरुण देव को शूली दी जाने वाली थी। उसने अरुणदेव का परिचय राजपुरुषों को दिया कि अरुणदेक नगरसेठ की पुत्री देयिणी का पति है। वह अपनी पत्नी के हाथ भला क्योंकर काटेगा। अवश्य ही वास्तविक अपराधी बचकर निकल गया है। उधर देयिणी के पिता को वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ तो वह दौड़कर शूलीस्थल पर आया और दामाद को मुक्त कराया। इधर यह सब चल रहा था, उधर अतिशय ज्ञानी चारण मुनि वहां उपस्थित हुए। उन्होंने धर्मोपदेश दिया और अरुणदेव तथा देयिणी का पूर्वभव विस्तार से सुनाया। पूर्वभव में कहे गए कटु शब्दों के परिणामस्वरूप अरुण देव को शूली देखनी पड़ी और देयिणी को हाथ कटाने पड़े। अपना पूर्वभव सुनकर अरुणदेव और देयिणी को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। ज्ञान का सहज फल है वैराग्य । परिणामतः दोनों ने चारित्र धारण कर शुभ गति प्राप्त की। -पार्श्वनाथ चरित्र अर्चिमाली (आर्या) आर्या अर्चिमाली का जन्म स्थान अरक्खुरी नगरी तथा माता-पिता का नाम इन्हीं के नामानुरूप था। इनका शेष परिचय काली आर्या के समान जानना चाहिए। (देखिए-काली आर्या) -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि.श्रु., वर्ग 7, अ. 3 अर्जुन ___ हस्तिनापुर नरेश महाराज पाण्डु और कुन्ती का पुत्र, एक वीर शिरोमणि और अपने युग का धुरन्धर धनुर्धर । जैन और जेनेतर पौराणिक साहित्य के सहस्रों कथानकों के अर्जुन नायक रहे हैं। वैदिक परम्परा का विश्व प्रसिद्ध शास्त्र श्रीमद्भगवद्गीता कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश का ही संकलन है। गीता में अर्जुन की जिज्ञासाएं सहज ही सिद्ध करती हैं कि अर्जुन केवल विश्वविजयी धनुर्धर ही न था बल्कि एक सच्चा जिज्ञासु भी था। युद्ध को जीत लेने की सामर्थ्य होते हुए भी उसके भीतर यह चिन्तन जागृत होता है कि सभी सगे-सम्बन्धी और रिश्तेदार ही मर जाएंगे तो फिर राज्यप्राप्ति का औचित्य ही क्या होगा? सगे... चैन चरित्र कोश .. ... 39 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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