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________________ उसका मन बंध गया। उसने आचार्य देव से पूछा-भगवन् ! नलिनीगुल्म विमान की पुनप्राप्ति की विधि क्या है? आचार्य ने उसे धर्मोपदेश दिया जिसे सुनकर अयवंती सुकुमाल दीक्षा लेने को तत्पर हो गया। परिवार और पलियों की आज्ञा लेकर वह दीक्षित हो गया। उसने आचार्य देव से कहा-गुरुदेव! प्रलम्ब संयम साधना को साधने में मेरे शरीर की सुकोमलता बाधा है। मैं साधना का छोटा मार्ग अपनाना चाहता हूं। आचार्य देव ने उसे वह मार्ग बता दिया। - मुनि अयवंती साभिग्रह अनशन स्वीकार कर श्मशान की ओर चल दिए। पथ के कांटों ने उनके पगतलों को रक्तरंजित बना दिया। वे श्मशान में पहुंचकर अविचल समाधि लगाकर खड़े हो गए। पगतलों से बहे रक्त की गंध से आकर्षित होकर एक शृगाली अपने बच्चों के साथ वहां पहुंच गई। वह मुनि के पैरों पर लगे रक्त को चाटने लगी। रक्त के साथ-साथ उसे मांस का स्वाद भी आने लगा। वह और उसके बच्चे मुनि के पैरों का मांस नोच-नोचकर खाने लगे। मुनि मरणान्तक वेदना से गुजर रहे थे। परन्तु उन्हें एक ही ध्यान था कि उन्हें नलिनीगुल्म विमान को प्राप्त करना है और उसके लिए वे कोई भी मूल्य चुकाने को प्रस्तुत हैं। यद्यपि आचार्य देव ने उन्हें निष्काम साधना करने का उपदेश दिया था परन्तु अयवंती का मन नलिनीगुल्म के आकर्षण में बंधा था और उन्होंने साधना के फल के रूप में उक्त विमान में उत्पन्न होने का प्रतिफल सुनिश्चित कर लिया था। ___ शृगाली और उसके बच्चों ने मुनि के पैरों को मांसरहित बना डाला। मुनि गिर गए और देह त्याग कर नलिनीगुल्म विमान के अधिकारी बने। कहते हैं कि वह शृगाली किसी पूर्व जन्म की अयवंती सुकुमाल की पत्नी थी। शृगाली ने मुनि के पूरे शरीर का आहार कर लिया। उधर दूसरे दिन अयवंती सुकुमाल की माता और पत्नियां मुनि-दर्शन को गईं। आचार्य ने अयवंती सुकुमाल की प्रकृष्ट साधना की पूरी गाथा उन्हें सुनाई। सुनकर भद्रा और उसकी वधुएं सिहर उठीं। उनके हृदय वैराग्यपूर्ण बन गए। भद्रा और इकतीस पत्नियों ने आचार्य से दीक्षा ग्रहण की और वे आत्मसाधना में लीन बन गईं। एक पत्नी सगर्भा थी इसलिए वह दीक्षित नहीं हुई। कालक्रम से उसने पुत्र को जन्म दिया। आगे चलकर उस पुत्र ने अपने पिता की स्मृति में एक मंदिर का निर्माण कराया जो महाकाल नाम से आज भी उज्जयिनी में विद्यमान है। -दर्शन शुद्धि प्रकरण अरणक श्रावक चम्पानगरी का निवासी एक दृढ़धर्मी श्रावक । उसके पास अपार धन था। उसका व्यवसाय आयात-निर्यात का था। अर्जित धन का दशमांश वह दानादि पुण्य कर्मों में अर्पित करता था। उसके अतिरिक्त मर्यादा से अधिक अर्जित धन को भी वह जरूरतमंदों में बांट देता था। अरणक की धर्मश्रद्धा अति सुदृढ़ थी। सामायिक, पौषधादि में वह कभी भी प्रमाद नहीं करता था। ग्रहीत व्रतों और मर्यादाओं का एकनिष्ठ चित्त से अनुपालन करता था। . एक बार अरणक व्यापार के लिए समुद्री यात्रा कर रहा था। अन्य अनेक व्यापारी भी उसके साथ थे। एक देव अरणक की दृढ़धर्मिता की परीक्षा लेने के लिए आया। देव ने विशाल और रौद्र रूप धारण कर सामायिक-साधनारत अरणक को चेतावनी दी कि वह सामायिक का ढोंग छोड़कर उसकी शरण ग्रहण कर ले अन्यथा वह उसे उसके साथियों और माल सहित समुद्र में डुबो देगा। देव की इस चेतावनी का अरणक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने सागारी अनशन कर लिया और जिनस्तुति में तल्लीन बना रहा। देव ने ...34 .. ... जैन चरित्र कोश ..
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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