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________________ उस काल में बारह वर्षों का दुष्काल पड़ा । अनेक श्रुतधर आचार्य काल - कवलित हो गए। चतुर्दशपूर्वी एक ही मुनि बचे थे, वे थे आचार्य भद्रबाहु, जो उन दिनों नेपाल में रहकर महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ के निर्णय पर मुनि स्थूलभद्र को पांच सौ मुनियों के साथ नेपाल में वाचना लेने के लिए भेजा गया । आचार्य भद्रबाहु ने वाचना देनी शुरू की। पूर्वों के दुरूह अध्ययन से घबरा कर पांच सौ मुनि वापिस लौट गए। स्थूलभद्र अकेले डटे रहे। जब वे दशपूर्वो का ज्ञान ग्रहण कर चुके तो एक बार अपनी यक्षा आदि साध्वी बहनों को उन्होंने चमत्कार दिखा कर चकित कर दिया। इसकी सूचना पाकर आचार्य भद्रबाहु ने आगे की वाचना देने से इंकार कर दिया। संघ के विशिष्ट आग्रह पर शेष चार पूर्वों की शाब्दी वाचना देने को तैयार हुए। ऐसे स्थूलभद्र शब्दार्थ की दृष्टि से दशपूर्वधर तथा शब्द दृष्टि से चतुर्दश पूर्वधर थे । वी. नि. 170 में स्थूलभद्र आचार्य पाट पर विराजित हुए और 45 वर्षों तक इस पद पर रहते हुए स्वर्गवासी हुए । स्वयंप्रभ स्वामी (विहरमान तीर्थंकर) छठे विहरमान तीर्थंकर । धातकी खण्ड द्वीप की वपु विजय की विजय नगरी में महाराज मित्रसेन की महारानी सुमंगला की रत्नकुक्षी से प्रभु ने जन्म लिया । यौवन वय में वीरसेन नामक राजकुमारी से प्रभु का पाणिग्रहण हुआ । तिरासी लाख पूर्व तक गृहवास में रहकर प्रभु ने आर्हती प्रव्रज्या ग्रहण की। कैवल्य को साधकर और तीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर पद पर अभिषिक्त हुए । भव्य जीवों के लिए कल्याण का द्वार बने प्रभु वर्तमान में धातकी खण्ड की वपु विजय में विचरणशील हैं। (क) स्वयंभू सतरहवें तीर्थंकर प्रभु कुन्थुनाथ के पैंतीस गणधरों में से प्रमुख गणधर । - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र (ख) स्वयंभू (वासुदेव) द्वारिका नगरी के राजा रुद्र और उसकी रानी पृथ्वी का अंगजात। उसके गर्भ में आने पर पृथ्वी ने सात स्वप्न देखे थे, जिससे स्पष्ट था कि जन्म लेने वाला पुत्र वासुदेव बनेगा। राजा की एक अन्य रानी सुप्रभा ने चार स्वप्नों से संसूचित जिस पुत्र को जन्म दिया उसका नाम भद्र रखा गया। युवा होने पर ये दोनों कुमार अत्यन्त तेजस्वी और वीर बने । पूर्वभव में स्वयंभू बारहवें स्वर्ग में देव था और उससे पूर्व श्रावस्ती नगरी का राजा धनमित्र था । बलि नामक एक राजा उसका मित्र था। एक बार दोनों मित्रों में द्यूत क्रीड़ा हुई जिसमें बलि ने धनमित्र का राजपाट जीत लिया। पराभूत धनमित्र ने वन का मार्ग लिया । सुसंयोग से वहां उसे एक मुनि के दर्शन हुए और वह मुनि बन गया । उत्कृष्ट तप किया। पर मन में पराभव की ग्रन्थी शेष थी। बलि से बदला लेने के भाव को मन में रखकर वह मरा । देवभव करके स्वयंभू बना । उधर बलि भी कई भवों में होता 'हुआ नंदन पुर नरेश मेरक हुआ। मेरक बलशाली राजा था और प्रतिवासुदेव था । आखिर एक प्रसंग पर स्वयंभू और मेरक के मध्य युद्ध हुआ जिसमें स्वयंभू ने मेरक का वध कर पूर्वभव का बदला लिया। तीन खण्डों को जीत कर वह वासुदेव बना और सुदीर्घ काल तक भोगासक्त और युद्धरत जीवन जीकर मृत्यु को प्राप्त हुआ । भोगासक्ति और युद्ध प्रियता के कारण वह नरक में गया। भाई की मृत्यु के पश्चात् भद्र दीक्षित हुए और सर्व कर्म-विमुक्त न निर्वाण को प्राप्त हुए । -त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, वर्ग 4/3 ••• जैन चरित्र कोश - *** 707 ♦♦♦
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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