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________________ (ख) सुन्दरी नंदनपुर नगर के राजा समरकेशरी की रानी। सुन्दरीनन्द ___ दक्षिणापथ के नासिक नगर का एक इभ्य श्रेष्ठी, जिसका नाम तो नन्द था, पर अपनी पत्नी सुन्दरी पर अत्यधिक स्नेहासक्त हो जाने पर वह 'सुन्दरीनन्द' नाम से जाना जाने लगा था। पत्नी पर उसकी आसक्ति का यह आलम था कि वह धर्म-कर्म तो भूल ही गया था, लोकव्यवहार का भी उसका विवेक कुण्ठित हो गया था। वह जब और जहां जिससे भी बात करता अपनी पत्नी के रूप की ही प्रशंसा करता। इसलिए लोग उसे सुन्दरीनन्द नाम से पुकारने लगे थे। नन्द का एक भाई भी था जो मुनि बन गया था। वे मुनि एक बार नासिक नगर में आए। सभी लोग मुनि-दर्शन के लिए आए पर नन्द नहीं आया। मुनि ने लोगों से नन्द के बारे में पूछा तो उन्हें उसकी स्थिति का ज्ञान हुआ। मुनि नन्द के घर गए। नन्द ने मुनि का स्वागत किया। मुनि ने नन्द को धर्म-कर्म की प्रेरणा दी। नन्द ने कहा, महाराज! मुझे धर्म का फल सुन्दरी के रूप में प्राप्त है ही, फिर धर्म के उस फल को छोड़कर किस फल की कामना में धर्म करूं ? मुनि समझ गए कि नन्द की आसक्ति प्रगाढ़ है। नन्द को समझाने के लिए मुनि ने एक विचित्र युक्ति का आश्रय लिया। उन्होंने नन्द से कहा, तुम्हारी सुन्दरी कोई विशेष सुन्दर नहीं है, तुम चाहो तो इससे भी सुन्दर स्त्रियां मैं तुम्हें दिखा सकता हूँ। नन्द की स्वीकृति पर मुनि उसे सुमेरु पर्वत पर ले गए। वहां उन्होंने एक किन्नरी को उसे दिखाया और पूछा, क्या तुम्हारी सुन्दरी इससे भी सुन्दर है? नन्द ने कहा, इससे सुन्दर तो मेरी सुन्दरी नहीं है। फिर मुनि आगे बढ़े। वहां पर वैमानिक देवियां क्रीड़ा कर रही थीं। मुनि ने पूछा, सच बता तुम्हारी सुन्दरी इन सुन्दरियों के समक्ष कैसी है? वैमानिक देवियों की सुन्दरता को देखकर नन्द दंग रह गया। बोला, इनके समक्ष तो मेरी सुन्दरी बन्दरिया के जैसी है। फिर उसने पूछा, महाराज! ये सुन्दरियां कैसे प्राप्त होती हैं ? मुनि ने कहा, नन्द! जैसे इन सुन्दरियों के समक्ष तुम्हारी सुन्दरी बन्दरिया के समान है, ऐसे ही मुक्ति-सुन्दरी के समक्ष ये सुन्दरियां भी बन्दरिया के समान हैं। धर्म के द्वारा ही मुक्ति-सुन्दरी का वरण संभव है। नन्द प्रबुद्ध बन गया। मुनि ने नन्द को धर्म का स्वरूप समझाया और उसे दीक्षित किया। सुन्दरीनन्द सुन्दरी के मोहपाश से मुक्त होकर परमपद का अधिकारी बन गया। -धर्मोपदेशमाला, विवरण कथा 103 सुकाली ___ महाराज श्रेणिक की रानी और सुकालकुमार की माता। भगवान के मुख से पुत्र की मृत्यु का संवाद सुनकर दुखगर्भित वैराग्य के परिणामस्वरूप वह दीक्षित हुई। उसने विशेष रूप से कनकावली तप की की जिसकी चार परिपाटियों को पूर्ण करने में पांच वर्ष नौ मास और अठारह दिन का समय लगता है। प्रत्येक परिपाटी में अठासी दिन पारणे के तथा एक वर्ष दो मास चौदह दिन तपस्या के होते हैं। (शेष परिचय कालीवत) -अन्तगडसूत्र वर्ग 8, अध्ययन 2 सुकुमारिका चम्पानगरी के सेठ सागरदत्त की पुत्री। (देखिए-नागश्री) ... 650 -- जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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