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________________ ग्रहण नहीं करता था। भगवान महावीर और उनके संघ के प्रति राजा के हृदय में ऐसी दृढ़ आस्था थी कि उनकी आस्था की अनुशंसा देवलोकों में भी होती थी। एक बार जब देवराज इन्द्र ने श्रेणिक की श्रद्धा की संस्तुति देवसभा में की तो एक देवता श्रेणिक की परीक्षा लेने आया। राजा जिस मार्ग से गुजर रहे थे उस मार्ग पर वह देवता एक श्रमण का वेश धारण कर जलाशय से मछलियां पकड़ने लगा। श्रेणिक इस दृश्य को देखकर खिन्न बन गए। उन्होंने श्रमण को समझाया। श्रमण बोला, ऐसा कार्य वह अकेला नहीं करता है, महावीर के अन्य श्रमण भी ऐसा ही करते हैं। महावीर के श्रमणों की निन्दना सुनकर श्रेणिक ने उस श्रमण को कठोरता से सजग किया और कहा कि वह अपने पाप को उचित सिद्ध करने के लिए महावीर के शिष्यों की निन्दना कर रहा है। उस श्रमण को समझाकर श्रेणिक कुछ ही आगे बढ़े थे कि उन्हें राजपथ पर एक सगर्भा साध्वी दिखाई दी। श्रेणिक सन्न रह गए। उन्होंने साध्वी को उसके पाप के लिए प्रायश्चित्त करने की सलाह दी तो साध्वी ने आंखें तरेरते हुए कहा, कैसा प्रायश्चित्त लूं ? प्रायश्चित्त तो गौतम आदि श्रमणों को लेना चाहिए जो इस अकार्य के लिए उत्तरदायी हैं। श्रेणिक का हृदय उस साध्वी के प्रति वितृष्णा से भर गया। उन्होंने सख्त शब्दों में साध्वी के दोषारोपण का प्रतिवाद किया और कहा, कि वह परम चारित्रवान गौतमादि श्रमणों के प्रति अभ्याख्यान करेगी तो उसे कठोर राजदण्ड दिया जाएगा और यदि वह अपने पाप का प्रायश्चित्त कर लेगी तो न केवल उसके समुचित प्रसव की व्यवस्था की जाएगी अपितु बाद में उसके संयम-प्रवेश पर भी उसका समुचित सहयोग किया जाएगा। श्रेणिक की महावीर और उनके श्रमणों के प्रति ऐसी दृढ़ निष्ठा देखकर देवता दंग रह गया। उसने अपने मूल रूप में प्रगट होकर श्रेणिक का अभिनन्दन किया और उनकी मुक्त कण्ठ से संस्तुति की। जाते हुए उपहार स्वरूप एक दिव्य हार और दो स्वर्ण कंकण उसने श्रेणिक को भेंट स्वरूप प्रदान किए। श्रेणिक ने अपना पूर्वार्द्ध जीवन पूर्ण भोग-विलास और ऐश्वर्य पूर्ण ढंग से जीया परन्तु जीवन का उत्तरार्द्ध भाग उन्होंने पूर्ण धार्मिक मनोवृत्ति के साथ व्यतीत किया। अपनी प्रकृष्ट श्रद्धा और धर्म प्रभावना के कारण उन्होंने तीर्थंकर गोत्र अर्जित किया। धारिणी, नन्दा, काली, चेलना आदि उनकी कई रानियों तथा मेघ, अभय, नंदीसेन आदि कई पुत्रों ने महावीर के धर्मसंघ में दीक्षा धारण की। श्रेणिक ने इनको खुशी-खुशी दीक्षा की आज्ञा प्रदान की। चेलना से उत्पन्न श्रेणिक का कौणिक नामक पुत्र एक अति महत्वाकांक्षी युवक था। उसने अपने कुछ सोतेले भाइयों को साथ मिलाकर अपने पिता श्रेणिक के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उसने श्रेणिक को कारागार में डाल दिया और स्वयं मगध की राजगद्दी पर आसीन हो गया। कारागार में ही श्रेणिक का निधन हुआ। सम्यक्त्व स्पर्श से पूर्व ही उनकी भावी गति नरक की बन्ध चुकी थी। फलतः वे प्रथम नरक में गए। वहां से निकलकर आगामी चौबीसी में पद्म नाम के प्रथम तीर्थंकर होंगे। (क) श्रेयांस (कुमार) ____भगवान ऋषभदेव के पौत्र, हस्तिनापुर नरेश सोमप्रभ के पुत्र तथा वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम दातार। ऋषभदेव मुनि बने। उस समय तक जगत दान-धर्म और भिक्षा विधि से अपरिचित था। भगवान भिक्षा के लिए नगर में जाते तो लोग उन्हें बहुमूल्य वस्तुएं देना चाहते पर भोजन देने का विचार किसी को नहीं सूझता। एक वर्ष तक भगवान निराहार घूमते रहे। वे कृशकाय हो गए। .. 608 ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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