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________________ शालार्य व्यंतरी बहुशालग्राम के बाह्य भाग में स्थित शालवन नामक उद्यान में रहने वाली एक व्यंतरी। साधना काल के अष्टम वर्ष में जब भगवान महावीर उक्त उद्यान में समाधिस्थ थे तो शालार्य ने महावीर की समाधि खण्डित करने के लिए उन्हें अनेक उपसर्ग दिए। पर महावीर की समाधि को वह खण्डित न कर सकी। आखिर व्यंतरी हार गई और महावीर के चरणों पर अवनत बन गई। शालिभद्र राजगृह नगर के रहने वाले धन-कुबेर सेठ गोभद्र तथा उनकी अर्धांगिनी के अंगजात, सुन्दर, सुकोमल और शालीन युवक । उनके महलों में समृद्धि का दरिया बहता था। यह समृद्धि तब और अधिक विस्तृत बन गई जब सेठ गोभद्र मुनि बनकर, संयम पालकर देवलोक वासी हुए। क्योंकि देव बने गोभद्र प्रतिदिन अपने पुत्र और बत्तीस पुत्रवधुओं के लिए दिव्य आभूषण, वस्त्र और भोजन भेजते थे। शालिभद्र की बत्तीस पत्नियां प्रतिदिन नए वस्त्र और आभूषण धारण किया करती थीं। ____ एक बार नेपाल के कुछ व्यापारी सोलह रत्नकम्बल लेकर राजगृह आए। वे इन सभी कम्बलों को एक ही साथ बेचना चाहते थे। इसी आशा के साथ वे महाराज श्रेणिक के पास गए। श्रेणिक और चेलना को "कंबल बहुत पसन्द थे पर अपनी वैयक्तिक सुख-सुविधा के लिए महाराज श्रेणिक राजकोष पर अनावश्यक बोझ नहीं डालना चाहते थे। व्यापारियों को निराश लौटते भद्रा की दासी ने देखा और उन्हें अपने साथ अपनी स्वामिनी के पास ले गई। भद्रा बोली, सोलह ही कंबल हैं, मेरे तो बत्तीस पुत्रवधुएं हैं। बत्तीस कंबल होते तो ठीक रहता। फिर भी उसने सोलहों कम्बल खरीद लिए। प्रत्येक के दो-दो भाग करके अपनी सभी पुत्र- वधुओं को एक-एक टुकड़ा दे दिया। पुत्रवधुओं ने उन रत्नकम्बलों को एक दिन ओढ़ा और दूसरे दिन महल के पिछवाड़े में फेंक दिया। महतरानी ने उन्हें समेट लिया और एक रत्नकम्बल को ओढ़े हुए वह राजमहल में सफाई के लिए गई तो उसे रत्नकम्बल ओढ़े देख महारानी चेलना दंग रह गई। उसने पूरी बात की जानकारी प्राप्त की और उससे महाराज श्रेणिक को अवगत कराया। शालिभद्र की समृद्धि की स्वर्णिम गाथा सुनकर श्रेणिक भी स्तंभित रह गए। भद्रा सेठानी से आमंत्रित बनकर वे शालिभद्र के सप्तमंजिले महल में पहुंचे। भद्रा ने उन्हें चतुर्थ मंजिल पर बैठाया और पुत्र को आवाज दी कि नीचे आओ, आज हमारे स्वामी हमारे घर आए हैं। _ 'स्वामी' शब्द सुनकर शालिभद्र स्तब्ध रह गए। उन्हें स्वप्न में भी यह कल्पना नहीं थी कि उनके ऊपर भी कोई स्वामी है। मात्राज्ञा का पालन करके वे नीचे आए। श्रेणिक ने उन्हें गोद में बैठा लिया। पर वह गोद उन्हें तप्त भट्ठी प्रतीत हो रही थी। प्रथम बार उन्हें ज्ञात हुआ था कि वे स्वतंत्र नहीं हैं। पुत्र की मनोदशा और मनोव्यथा माता से छिपी न रह सकी। उसने महाराज श्रेणिक को विदाई दी और पुत्र को सहज बनाने के लिए मधुर शब्दों में समझाने लगी। पर शालिभद्र तो समझ चुके थे। गहन चिन्तन ने उनमें जातिस्मृति का द्वार अनावृत कर दिया था। उन्होंने अपना पूर्वभव जाना कि वे धन्या नामक एक ग्वालिन के पुत्र थे और उनका नाम संगम था। धन्या इसी बस्ती में रहकर अपना और अपने पुत्र का उदर पोषण करती थी। एक बार त्यौहार के प्रसंग पर मेरी जिद्द पर साधनहीन धन्या ने यहां-वहां से दूध, शक्कर और चावल जुटाकर मेरे लिए खीर बनाई थी। समृद्ध बालकों को एक तपस्वी मुनि को अपने घर चलने का आग्रह करते देख मैंने भी वैसा ही आग्रह मुनि से किया था और उन मुनि ने समस्त समृद्ध बालकों के आग्रह ठुकरा कर मेरा आग्रह स्वीकार किया था। उस क्षण की मेरी प्रसन्नता अपार थी और मैंने उसी आत्मविभोर मनःस्थिति से मुनि का ... जैन चरित्र कोश ... -- 581 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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