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________________ अपनी पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर की रचना की। उधर यात्रा क्रम में राजकुमार अपराजित प्रीतिमति के स्वयंवर में उपस्थित हुआ, जहां प्रीतिमति ने पूर्व जन्म की प्रीतिवश उसका वरण किया। अनेक राजकन्याओं से विवाह करके विपुल सम्पत्ति के साथ अपराजित अपने नगर में लौटा। पुत्र को पाकर माता-पिता के हर्ष का पारावार न रहा। राजा हरीनन्दी ने अन्तिम अवस्था में अपराजित को राज्यारूढ़ किया और स्वयं प्रव्रजित हो गया। अपराजित ने सुदीर्घ काल तक राज्य किया। राजकाज का दायित्व वहन करते हुए भी अपराजित ने धर्म को विस्मृत नहीं किया। प्रीतिमति भी धर्माराधना में अपने पति की पूर्ण रूप से अनुगामिनी बनी रही। एक बार महाराज अपराजित अपनी रानी के साथ उद्यान क्रीड़ा को गए। वहां उन्होंने एक सुरूप युवक को अनेक रमणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते देखा। अपराजित ने अपने सेवकों से उस युवक का परिचय पूछा, सेवकों ने बताया-अनंगदेव नामक यह युवक आपके ही नगर के समृद्धिशाली सेठ का पुत्र है। दूसरे दिन राजा अपराजित किसी कार्यवश कहीं जा रहे थे। उन्होंने एक अर्थी देखी। पूछने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि श्रेष्ठिपुत्र अनंगदेव का विशूचिका के कारण रात्रि में निधन हो गया। यह उसी की अन्तिम यात्रा है। इस घटना को देखकर महाराज अपराजित का मन जीवन की नश्वरता और क्षणभंगुरता पर चिन्तनशील हो गया। चिन्तन से वैराग्य का उदय हुआ। उसी दिन नगर में मुनि पधारे। राजपद त्याग कर अपराजित दीक्षित हो गए। प्रीतिमति ने भी पति का अनुगमन किया। तप और संयम से आत्मा को भावित करते हुए अपराजित और प्रीतिमति आयुष्य पूर्ण कर आरण देवलोक में इन्द्र के सामानिक देव बने। वहां से तृतीय भव में अपराजित का जीव ही तीर्थंकर अरिष्टनेमि के रूप में जन्मा। प्रीतिमति का जीव राजीमती के रूप में उत्पन्न हुआ। -तीर्थंकर चरित्र अपराजिता (आर्या) इनका समग्र परिचय कमला आर्या के समान है। (देखिए-कमला आर्या) -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि.श्रु., वर्ग 5, अ. 28 अप्सरा (आर्या) ____ आर्या अप्सरा का जन्म साकेत नगर में हुआ। कालधर्म को प्राप्त कर यह शक्रेन्द्र महाराज की पट्टमहिषी के रूप में जन्मी, जहां इनका आयुष्य सात पल्योपम का है। इनका शेष समग्र परिचय काली आर्या के समान है। (दखिए-काली आया) __- ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि.श्रु., वर्ग 9, अ. 8 अभग्नसेन चोर ___ अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व पुरिमताल नगर के निकटवर्ती जंगलों में रहने वाला एक कुख्यात और महा-अधर्मी चोर। उसके पिता का नाम विजय था, जो स्वयं एक कुख्यात तस्कर था और पांच सौ चोरों का सरदार था। बह पुरिमताल नगर के निकट जंगल में फैली पहाड़ियों में पल्ली बनाकर रहता था। पिता का उत्तराधिकार - उसके पुत्र ने पूर्ण दायित्व से संभाला और पिता से भी बढ़कर कुख्यात और चालाक चोर बना। पूरे पुरिमताल साम्राज्य में उसका आतंक फैल गया। अभग्नसेन के नाम से पूरा क्षेत्र कांप उठता था। . पुरिमताल नरेश महाराज महाबल ने अभग्नसेन चोर को पकड़ने के लिए अनेक यत्न किए। अपने सैनिकों को पूर्ण स्वतन्त्रता दी पर अभग्नसेन को गिरफ्तार करने में उसे सफलता नहीं मिली। आखिर उसने जैन चरित्र कोश ... .. 21 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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