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________________ (क) वीरसेन कनकशालपुर नगर के राजा हरिकेशरी और महारानी गुणावली का अंगजात, एक परमपुण्यवान, धीर, वीर और साहसी राजकुमार। उसके जीवन में सुख और दुख के अनेक घटनाक्रम घटे, कई बार वह मारणान्तिक उपसर्गों से घिरा, पर अपने धैर्य, धर्म और साहस के बल पर उसने प्रत्येक परिस्थिति का सामना किया । वीरसेन कुसुमसुंदरी नामक रत्नपुरी नगरी की राजकुमारी के स्वयंवर में सम्मिलित हुआ। राजकुमारी ने वीरसेन का वरण किया। कुसुमसुंदरी के पिता महाराज रणधीर के कोई पुत्र नहीं था । सो उन्होंने पुत्री का विवाह वीरसेन से सम्पन्न करने के बाद वीरसेन को ही रत्नपुरी के राजपद पर अधिष्ठित किया और स्वयं प्रव्रजित हो गए । राजकुमारी कुसुमसुंदरी के पास पिता- प्रदत्त तीन अद्भुत वस्तुएं थीं- एक चतुर तोता, दूसरा दिव्य अश्व और तीसरी दिव्य शैया । एक बार वीरसेन और कुसुमसुंदरी दिव्य अश्व पर सवार होकर कुसुमपुर नामक नगर में गए। वह एक उजड़ा हुआ नगर था । वीरसेन की आराधना से प्रसन्न होकर कुसुमपुर नगर की रक्षक देवी ने उस नगर को आबाद किया और वीरसेन को वहां का राजा बनाया । किसी समय वीरसेन और कुसुमसुंदरी के पास रहे हुए दिव्य अश्व और दिव्य शैया को किसी ने चुरा लिया। इसीलिए एक बार जब वे दोनों समुद्र से यात्रा कर रहे थे तो दुर्दैववश जहाज टूट गया और वे दोनों समुद्र में डूबने लगे । आयुष्य शेष होने के कारण दोनों ही अलग-अलग नगरों के किनारों पर आ लगे । कुसुमश्री श्रीपुर नगर में एक गणिका के चंगुल में फंस गई। उसने अपने बुद्धि के बल पर वेश्या के चंगुल में रहने के बाद भी अपने शीलव्रत को खण्डित नहीं बनने दिया । धर्म ध्यान का आश्रय लेकर वह अपने स्वामी के लौटने की प्रतीक्षा करने लगी । उधर वीरसेन भृगुपुरी नगरी के तट पर आ लगा। वहां एक निःसंतान श्रेष्ठी ने उसे अपना पुत्र मानकर अपने घर रख लिया। कुछ ही समय बाद श्रेष्ठी का निधन हो गया । धर्म पिता का अग्नि संस्कार करके वीरसेन कुसुमश्री की खोज में निकाला । दैव अनुकूल होने से वह श्रीपुर नगर में ही पहुंच गया। उसने कुसुमश्री को खोज निकाला । परन्तु वेश्या के घर में उसे देखकर वीरसेन संदेह से घिर गया। फिर एक घटना के संदर्भ में कुसुमश्री ने अपने पतिव्रत धर्म की महिमा से पूरे नगर को चमत्कृत कर दिया। उसके बाद वीरसेन और कुसुमश्री का मिलन हुआ । कालान्तर में वीरसेन अपनी रानी कुसुमश्री के साथ कनकशालपुर पहुंचा। पिता ने वीरसेन को राजपद देकर प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। वीरसेन तीन साम्राज्यों का अकेला स्वामी था। उसके पास दिव्य अश्व था, इसलिए एक साथ तीन राज्यों के संचालन में उसे परेशानी नहीं थी । सुदीर्घकाल तक वीरसेन ने राज्य किया। बाद में कुसुमश्री के साथ ही वह प्रव्रजित हुआ और शुद्ध संयम की आराधना द्वारा बारहवें देवलोक में देव बना । कुसुमश्री भी बारहवें देवलोक में देवरूप में जन्मी । वहां से च्यवकर वे दोनों मानवभव प्राप्त कर मोक्ष में जाएंगे। (ख) वीरसेन (आचार्य) टीकाकार के रूप में सुविख्यात एक जैन आचार्य | आचार्य वीरसेन वी. नि. की चौदहवीं शताब्दी के एक ख्यातिलब्ध जैन आचार्य थे। उन द्वारा विरचित धवला और जयधवला नामक टीका ग्रन्थ जैन परम्परा के प्रसिद्ध ग्रन्थ | धवला टीका षटखण्डागम ग्रन्थ की व्याख्या है। यह टीका 62000 श्लोक परिमाण है । ••• जैन चरित्र कोश - 569
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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