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________________ शुरू करने से पूर्व देवी की आराधना आवश्यक है। विशाखदत्त ने देवी की आराधना करने से इन्कार करते हुए कहा कि वह एक जैन श्रावक है और अरिहंत प्रभु के अतिरिक्त किसी भी देवी-देवता की उपासना / आराधना वह नहीं करता है। योगी ने अपना प्रचण्ड रूप प्रकट किया। विशाखदत्त समझ गया कि योगी धूर्त है और उसकी बलि देने के लिए उसे वहां लाया है। पर उसने भय को अपने हृदय में प्रवेश नहीं लेने दिया। पूरी दृढ़ता से उसने योगी का प्रतिवाद किया। योगी ने कड़क कर कहा, देखो ! इस तलवार के प्रहार से मैं इसी क्षण तुम्हारा सिर काटता हूँ, देखता हूँ कि मुझे कौन रोकता है। मंदिर के निकट ही धन नाम का एक पुरुष रहता था। वह पहले मुनि था। उसके किसी गुरुतर अपराध पर आचार्य ने उसे पारांचिक प्रायश्चित्त दिया था। इस प्रायश्चित्त में मुनि-वेश का परित्याग कर साधना की जाती है। धन ने स्वधर्मी सेठ को कष्ट में देखा तो वह उसके पास आया और उसने योगी को ललकारा। योगी के अकड़ने पर धन ने विद्याबल से उसे दण्डित कर सेठ की रक्षा की। तब सेठ का परिचय जानने के पश्चात् धन ने उसे वज्ररत्नों की पहचान बताई। सेठ ने खान से दो वज्ररत्न प्राप्त किए और अपने देश को चला गया। उसकी समृद्धि लौट आई और वह आनन्द पूर्वक रहने लगा। ___ प्रायश्चित्त की अवधि पूर्ण होने पर धन पुनः मुनि बन गया। एक बार वह विचरण करते हुए कौशाम्बी नगरी में आया। उसका उपदेश सुनकर विशाखदत्त सेठ ने सपरिवार प्रव्रज्या धारण की और आत्मकल्याण किया। -कथा रत्न कोष : भाग 1 विशाखा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की एक रानी। विशालधर स्वामी (विहरमान तीर्थंकर) दशम विहरमान तीर्थंकर । धातकी खण्डद्वीप के पश्चिम महाविदेह के अन्तर्गत वपु विजय में स्थित विजयपुरी नामक नगरी में प्रभु का जन्म हुआ। महाराज नभराय और महारानी भद्रा प्रभु के पिता और माता हैं। विमला देवी नामक राजकन्या से यौवनवय में प्रभु का पाणिग्रहण हुआ। पिता के पश्चात् प्रभु राजपद पर आरूढ़ हुए और तिरासी लाख पूर्व की अवस्था तक उन्होंने राज्य किया। तदनन्तर वर्षीदान देकर प्रभु दीक्षित हुए। अल्पकालिक साधना से ही प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त कर चतुर्विध धर्मतीर्थ की संस्थापना की। चौरासी लाख पूर्व का आयुष्य पूर्ण कर प्रभु मोक्ष जाएंगे। प्रभु का चिन्ह सूर्य है। विशुद्ध केवली ___ एक प्राचीनकालीन केवलज्ञानी मुनि जिनका उपदेश सुनकर सहस्रमल्ल चोर दीक्षित हुआ था। (देखिएसहस्रमल्ल) (क) विश्वभूति राजगृह नरेश विश्वनंदी के अनुज युवराज विशाखभूति का पुत्र और एक शक्ति सम्पन्न व तेजस्वी राजकुमार। उसे अपनी रानियों के साथ पुष्पोद्यान में क्रीड़ा करना प्रिय लगता था। राजपरिवार में यह मर्यादा सुनिश्चित की गई थी कि जब कोई राजपरिवार का सदस्य अपने अंतःपुर के साथ पुष्पोद्यान में हो तो राजपरिवार का अन्य सदस्य वहां नहीं जा सकता था। एक बार जब विश्वभूति अपने अतःपुर के साथ पुष्पोद्यान में क्रीड़ा कर रहा था तो राजा विश्वनंदी का पुत्र विशाखनंदी वहां आया। पर राजपरिवार की मर्यादा की बात कहकर पहरेदारों ने उसे पुष्पोद्यान के द्वार पर ही रोक दिया। इससे विशाखनंदी ने अपने आपको अपमानित ... जैन चरित्र कोश ... -- 561 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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