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________________ उनकी पुत्री का हाथ अपने लिए मांगा। कुंभ ने रुष्ट होकर दूत को भगा दिया। इससे अदीनशत्रु भारी दल-बल के साथ मिथिला पर चढ़ आया। आखिर भगवती मल्लि की युक्ति से अदीनशत्रु प्रतिबुद्ध हुआ और प्रभु मल्लि के साथ ही प्रवर्जित बन उसने सिद्धत्व प्राप्त किया। (देखिए-मल्लिनाथ) अनंगसेना मोटपल्ली नगर की गणिका। (देखिए-उत्तम कुमार) अनन्तनाथ (तीर्थंकर) ___अवसर्पिणी काल की चौबीसी के चौदहवें तीर्थंकर । अयोध्या नगरी के महाराज सिंहसेन की महारानी सुयशा की रत्नकुक्षी से वैशाख वदी त्रयोदशी को प्रभु का जन्म हुआ। कहते हैं कि उस समय अयोध्या नगरी चारों ओर से शत्रुओं से घिरी हुई थी। प्रभु के गर्भ में आते ही समस्त शत्रु पराभव को प्राप्त हो गए। इसे महाराज ने गर्भस्थ शिशु का पुण्य प्रभाव माना और शिशु के जन्म लेने पर नामकरण के दिन उक्त प्रसंग को प्रकाशित करते हुए उन्होंने शिशु को अनन्तजित नाम दिया। अनन्तजित आगे चलकर अनन्तनाथ के नाम से सुख्यात हुए। यौवन वय में अनन्तनाथ ने विवाह किया और राजपद पर आरूढ़ हुए। प्रलम्ब काल तक शासन करने के पश्चात् वैशाख वदी चतुर्दशी के दिन दीक्षा धारण की। तीन वर्ष की साधना के पश्चात प्रभु केवली बने। धर्मतीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर कहाए। अन्त में सात हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से सिद्धत्व प्राप्त किया। -त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र अनन्तमती _____ चम्पापुरी नगरी के धनी-मानी श्रेष्ठी प्रियदत्त की पत्नी बुद्धिश्री की अंगजात, एक सुशीला, दृढ़-धर्मिणी और अनिंद्य सुन्दरी कन्या। एक बार चम्पापुरी के बाह्य भाग स्थित उपवन में जैन आचार्य धर्मकीर्ति का पदार्पण हुआ। नगरजन मुनि-दर्शन के लिए उमड़ पड़े। अनन्तमती भी मुनिदर्शन के लिए गई। आचार्य श्री ने धर्मोपदेश की सरिता प्रवाहित की। प्रवचन का विषय था-ब्रह्मचर्य। मुनि-मुख से ब्रह्मचर्य की महिमा को सुनकर और उस में अंतर की श्रद्धा से निमज्जित होकर अनंतमती ने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का भीष्मव्रत ग्रहण कर लिया। ____ कालक्रम से प्रियदत्त अपनी पुत्री के लिए वर की खोज करने लगे। इस पर अनंतमती ने पिता को अपने संकल्प की बात बताई। आजीवन अविवाहित रहने के अपनी पुत्री के संकल्प की बात सुनकर पिता चिंतित हो गया। पुत्री ने अपने युक्तियुक्त वचनों से पिता को आश्वस्त किया। प्रियदत्त अपनी पुत्री के संकल्प और धर्मसाधना की दृढ़ता से परिचित था, फलतः वह शीघ्र ही आश्वस्त हो गया। शनैः शनैः अनंतमती के भीष्मव्रत से उसका यश पूरे नगर में प्रसारित हो गया। किसी समय अपनी सहेलियों के साथ अनंतमती उद्यान में झूला झूल रही थी। आकाशमार्ग से एक विद्याधर अपने विमान में बैठा जा रहा था। अनंतमती पर विद्याधर की दृष्टि पड़ी तो वह उसके रूप पर मुग्ध बन गया। उसने बाज की तरह झपटते हुए अनंतमती का अपहरण कर लिया। पर उसे अपनी पत्नी का तीव्र विरोध झेलना पड़ा। पत्नी के उग्र रूप से घबराकर विद्याधर ने अनंतमती को जंगल में पटक दिया। उधर एक भीलपल्ली थी। पल्लीपति ने अनंतमती को अपनी अर्धांगिणी बनाने का प्रयत्न किया। पर अनंतमती ने सख्ती से भील का विरोध किया। भील ने एक सेठ को अनंतमती बेच दी। सेठ ने अनंतमती को अपनी पत्नी बनाना चाहा। उसने बलात्कार की चेष्टा की तो शील सहायक देवी ने अनंतमती के शील की रक्षा की और सेठ को दण्डित किया। पराभूत बने सेठ ने एक वेश्या के हाथ अनंतमती को बेच दिया। वहां भी ... 16 ... ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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