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________________ ने हाथी, घोड़े, रथ और प्रचुर धन-संपत्ति जामाता को देकर उसे विदा किया। श्रावस्ती के निकट पहुंचकर लक्ष्मण सिंह ने सास-श्वसुर और पत्नी के समक्ष अपना वास्तविक रूप प्रकट किया। रूपवती और लीलावती को भी बला लिया गया। परा परिवार आनन्द के झले में झलने लगा। लक्ष्मी ने कनकमाला को भी समस्त रहस्य समझाया और उसे अपनी छोटी बहन का मान दिया। श्रावस्ती नगरी में सेठ गुणचन्द्र की प्रतिष्ठा पूर्वापेक्षया और बढ़ गई। उधर कालक्रम से लक्ष्मी ने पुत्र को जन्म दिया। आयु के उत्तरार्ध पक्ष में उसने संयम पथ पर कदम बढ़ाए। तप और चारित्र की निरतिचार साधना साधते हुए कैवल्य प्राप्त कर वह सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो गई। लक्ष्मीधर सेठ लक्ष्मीपुर नगर का एक धार्मिक और धनी श्रेष्ठी। उसकी ईमानदारी और प्रामाणिकता की नगर भर में शपथें ली जाती थीं। एक रात्रि में सेठ के कक्ष में एकाएक उजाला हो गया। सेठ ने देखा, उनके समक्ष धन की देवी लक्ष्मी खड़ी है। लक्ष्मी ने सेठ से कहा कि वह उसके घर से जाना चाहती है। लक्ष्मी की बात सुनकर सेठ सामान्य बना रहा। बोला-जाना चाहती हो तो जाओ। दूसरे दिन सेठ सोकर उठा तो उसकी तिजोरियां रिक्त हो चुकी थीं, वस्त्राभूषण और धान्य का एक कण तक उसके पास शेष न था, इससे भी सेठ खिन्न नहीं बना। उसका धन ही अशेष हुआ था, उसकी प्रामाणिकता तो जिन्दा थी। सो उसने उधार उठा कर मीठे तेल का विक्रय करना शुरू कर दिया। गृहखर्च निकलने लगा। लक्ष्मी अनेक स्थानों पर घूमती रही। परन्तु किसी ने उसका उपयोग जूए में किया, किसी ने मदिरा में और किसी ने उसे जमीन में ही गाड़ दिया। उसे कहीं भी सम्मान और सदुपयोग नहीं मिला। आखिर पुनः एक रात्रि में वह सेठ लक्ष्मीधर के समक्ष उपस्थित हुई और प्रार्थित-स्वर में बोली, सेठ ! मुझे आश्रय दे दो, मैं तुम्हारे घर में आश्रय चाहती हूँ। सेठ ने कहा, तुम्हें इस शर्त के साथ मेरे घर में आश्रय मिल सकता है कि मेरा घर छोड़ने से एक वर्ष पूर्व तुम्हें इसकी सूचना देनी होगी। लक्ष्मी ने लक्ष्मीधर को वचन दे दिया और उसके घर में टिक गई। सेठ पुनः सम्पन्न बन गया। उसके गृहांगन में धन-धान्य बहने-बरसने लगा। वर्षों बाद पुनः एक रात्रि में लक्ष्मी लक्ष्मीधर सेठ के समक्ष उपस्थित हुई और बोली, सेठ जी ! मेरा नाम चपला है। अब मैं अन्यत्र जाना चाहती हूँ। वचनबद्ध होने के कारण मैं तुम्हें यह सूचना देने आई हूँ कि ठीक एक वर्ष के पश्चात् मैं तेरे घर से विदा हो जाऊंगी। सेठ ने दूसरे दिन से ही दोनों हाथों से दान देना शुरू कर दिया। एक वर्ष बीतते-बीतते उसने अपना सर्वस्व दान कर दिया। दिग्दिगन्त में सेठ और सेठ की लक्ष्मी की प्रशंसा होती थी। सुनिश्चित समय पर रात्रि में लक्ष्मी पुनः सेठ के समक्ष उपस्थित हुई। बोली, तुम्हारे पास तो अन्न का एक कण भी शेष नहीं है, तुम्हारे पास क्या है, जो मैं लेकर जाऊंगी? पर तुमने मुझे जो सम्मान दिलाया है, उसने मुझे तुमसे बांध दिया है। मैं स्थायी रूप से तुम्हारे घर रहना चाहती हूँ। सेठ के कोठार धन-धान्य से पुनः भर गए। प्रामाणिक और उदार जीवन जीकर सेठ लक्ष्मीधर सद्गति का अधिकारी बना। -जैन कथा रत्न कोष, भाग 6/-बालावबोध (गौतम कुलक) लक्ष्मीपुज हस्तिनापुर नगर का रहने वाला एक परम पुण्यवान श्रेष्ठी युवक। उसके जन्म से पूर्व उसके पिता सुधर्मा की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर थी। लक्ष्मीपुज के गर्भ में आते ही सुधर्मा की आर्थिक स्थिति में ... 514 ... ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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