SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 535
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (क) रुद्र वर्तमान अवसर्पिणी काल के तृतीय नारद । (देखिए-नारद) (ख) रुद्र द्वारिका नगरी का राजा और तृतीय वासुदेव स्वयंभू का जनक। (देखिए-स्वयंभू वासुदेव) (क) रुद्रदत्त गुडखेटक नगर का रहने वाला एक शैव। वह धनी, मानी, गुणवान और सदाचारी युवक था। उसमें एक ही दुर्गुण था, वह था-जिन धर्म से विद्वेष । मुखर रूप से तो वह जिनधर्म की निन्दा नहीं करता था, पर हृदय में श्रमणों और श्रमण-धर्म से द्वेषभाव रखता था। उसी नगर में जिनदत्त नामक एक अनन्य श्रमणोपासक श्रेष्ठी निवास करता था। उसकी एक पुत्री थी जिसका नाम जिनमती था। जिनमती भी अनन्यरूपेण जिनोपासिका थी। जिन संस्कार उसे विरासत में प्राप्त हुए थे। वह परम रूपवान और युवा थी। सेठ जिनदत्त का मनस् संकल्प था कि वे अपनी पुत्री का विवाह किसी जैन युवक से ही करेंगे। किसी उत्सव के समय रुद्रदत्त की दृष्टि जिनमती पर पड़ी तो वह उसके रूप पर मुग्ध हो गया। वह अविवाहित था। उसने निश्चय कर लिया कि वह विवाह करेगा तो जिनमती से ही करेगा। उसने अपने विश्वस्त मित्र से अपने हृदय की बात कही। मित्र ने रुद्रदत्त को समझा दिया कि उसका संकल्प कभी भी यथार्थ नहीं बन पाएगा, क्योंकि जिनदत्त अपनी पुत्री का विवाह जिनोपासक युवक से ही करेगा। मित्र की बात सुनकर रुद्रदत्त ने कपट-श्रावक बनने का निश्चय कर लिया। वह चतुर तो था ही, उसने शीघ्र ही श्रमणों से जिन धर्म के सिद्धान्तों और तत्वों को सीख लिया तथा श्रमण सभा में वह प्रत्येक प्रसंग पर अग्रणी रहकर सामायिक-संवर-पौषधादि की आराधना करने लगा। उसकी कपट क्रियाओं से मुनिजन भी प्रभावित हुए और उसकी धर्मनिष्ठा की प्रशंसा करने लगे। शनैः शनैः रुद्रदत्त ने जिनदत्त से सम्पर्क बढ़ाया और अपनी कपट क्रियाओं से उसे भी उसने प्रभावित बना लिया। फिर उचित अवसर साधकर उसने जिनदत्त से उसकी पुत्री जिनमती का हाथ अपने लिए मांगा। सेठ रुद्रदत्त से प्रभावित तो हो ही चुका था, सो उसने रुद्रदत्त का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और शुभ मुहूर्त में जिनमती का विवाह रुद्रदत्त से कर दिया। विवाह के कुछ दिन बाद ही रुद्रदत्त अपनी लीक पर लौट गया। साथ ही उसने जिनमती को कह दिया कि वह भी शिवाराधना करे। जिनमती समझ गई कि उसके साथ छल हुआ है। परन्तु अब उसका निराकरण संभव नहीं था। पति-पत्नी के मध्य क्लेश उभर आया। आखिर क्लेश कब तक चलता। दोनों सुशिक्षित थे। परस्पर बैठकर दोनों ने मध्य मार्ग निकाला-कि रुद्रदत्त शिवालय नहीं जाएगा और जिनमती उपाश्रय नहीं जाएगी। यह क्रम कई दिनों तक चला। ___एक दिन पार्श्ववर्ती वन में रहने वाले भीलों ने नगर में आग लगा दी। देखते ही देखते आग ने पूरे नगर को चपेट में ले लिया। लोग अपने-अपने घरों की बहुमूल्य वस्तुएं साथ लेकर सुरक्षित स्थान तलाशने लगे। जिनमती ने देखा, रुद्रदत्त आग से आंखें मूंदकर शिवाराधना में तल्लीन है। जिनमती ने रुद्रदत्त को समझाया कि वह अपनी और अपने धन की अग्नि से रक्षा करे। इस पर रुद्रदत्त बोला, आज परीक्षा का उचित अवसर आया है, मैं शिवाराधना के प्रभाव से अपने घर को अग्नि के प्रकोप से मुक्त रखके तुम्हें दिखाऊंगा। जिनमती ने पूछा, यदि असफल हुए तो ? रुद्रदत्त बोला, यदि असफल हुआ तो मान लूंगा कि शैव धर्म निःसार है। ...494 ... जैन चरित्र कोश ....
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy