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________________ उधर रत्नपाल का पालन-पोषण मन्मन ने अपने पुत्र के समान ही किया। उसे विश्वास था कि जिनदत्त अब कभी नहीं लौटेगा और रत्नपाल कभी भी वास्तविकता को नहीं जान पाएगा तथा उसी के पुत्र के रूप में उसकी वंश-परम्परा को आगे बढ़ाएगा। परन्तु उसके विश्वास का धरातल उस क्षण खिसक गया जब रत्नपाल युवा हुआ और किसी ने उसे मन्मन सेठ का क्रीतदास कहा । रत्नपाल ने अपने विश्वस्त लोगों से अपने बारे में सब कुछ जान लिया। उसने प्रण किया कि वह स्वतंत्र व्यापार करके मन्मन का ऋण उतारेगा और अपने वास्तविक माता-पिता को खोज कर उनके पास लौट जाएगा। उसने व्यापार के लिए समुद्री मार्ग से देशाटन किया। उसका जहाज कालकूट द्वीप पर जाकर लगा। पुण्योदय से रत्नपाल वहां के राजा का विश्वस्त बन गया। राजा ने अपनी पुत्री रत्नवती का विवाह रत्नपाल से कर दिया। व्यापार में प्रभूत धन कमाकर रत्नपाल अपने देश लौटा। रत्नवती भी योगी पुरुष का वेश धरकर रत्नपाल के साथ आई । रत्नपाल को कहा गया था कि यह युवा योगी रत्नवती का बाल सखा है और उसे रत्नवती की स्मृति देता रहेगा इसलिए उसके साथ ही रहेगा । रत्नपाल ने मन्मन सेठ का कर्ज चुका दिया और पंचों के समक्ष उस हस्ताक्षरित सहमति पत्र को फाड़ दिया गया। रत्नपाल अपने पैतृक घर में आ गया। पैतृक गोदामों में माल भरा और पुरिमताल नगर का प्रतिष्ठित व्यापारी बन गया। अब रत्नपाल के समक्ष एक ही लक्ष्य था- अपने माता-पिता की खोज । युवा योगी ने इस कार्य को अपने हाथों में लिया और छह मास के अथक देशाटन से वह वसन्तपुर में रह रहे जिनदत्त और भानुमती को खोजने में सफल हो गया। इतना ही नहीं उसने अपनी कुशलता से धनदत्त द्वारा कौड़ियों के मूल्य से खरीदा गया करोड़ों रुपए की कीमत का बावना - चन्दन भी पुनः प्राप्त कर लिया। जिनदत्त और भानुमती को साथ लेकर युवा योगी पुरिमताल नगर लौटा। रत्नपाल माता-पिता को पाकर और माता-पिता पुत्र को पाकर क्षणभर में ही कष्टमय अतीत को भूल गए । रत्नपाल रत्नवती को लेने कालकूट द्वीप जाने की तैयारी करने लगा तो युवायोगी ने बात का रहस्य अनावृत्त करते हुए पुरुषवेश त्याग कर स्त्रीवेश धारण कर लिया। पति-पत्नी का मधुर मिलन हुआ। जीवन के समस्त सुख उस परिवार पर सावन का मेह बनकर बरसने लगे । कालान्तर में रत्नवती ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र युवा हुआ तो उसे गृहदायित्व देकर रत्नपाल 'और रत्नवती प्रव्रजित हो गए और उत्तम गति के अधिकारी बने । रत्नप्रभ सूरि (आचार्य) 1 'नेमिनाह चरिय' और 'दोघट्टीवृत्ति' जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थों की रचना करने वाले एक सुप्रसिद्ध विद्वान और मनीषी जैन आचार्य | आचार्य रत्नप्रभसूरि बड़गच्छ के प्रभावी आचार्य श्री वादिदेव सूरि के शिष्य थे । वे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के अधिकारी विद्वान और समर्थ साहित्य सर्जक थे। उन्होंने 'नेमिनाह चरिय' ग्रन्थ की रचना वी. नि. 1702 में तथा 'दोघट्टी वृत्ति' ग्रन्थ की रचना 1708 में की थी। तदनुसार आचार्य रत्नप्रभ सूरि वी. नि. की 18वीं सदी के पूर्वार्द्ध के आचार्य प्रमाणित होते हैं । (क) रत्नवती शील के प्रति अनन्य निष्ठा रखने वाली एक सन्नारी । वह आनन्दपुर नामक नगर के श्रेष्ठी धनपति थी। एक बार सुव्रता नामक आर्या ने अपनी शिष्या - वृन्द के साथ आनन्दपुर नगर में वर्षावास किया । रत्नवती पर धर्म का ऐसा रंग चढ़ा कि उसने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का भीष्म संकल्प ले लिया । • जैन चरित्र कोश - 481 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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