SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 520
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुन्दर देह वाली थी। आज तो रतिसुंदरी अस्थिपंजर और कुरूपा है। इसलिए आपको अपने दुराग्रह का त्याग कर देना चाहिए। राजा ने कहा, सुंदरी ! भले ही शरीर से तुम अस्थिपंजर बन गई हो, पर तुम्हारे नेत्रों में तो आज भी वही आकर्षण है जिसने मुझे आकर्षित किया था। सुना रतिसुंदरी ने। एक क्षण के लिए उसने विचार किया और बोली-मेरे नेत्र तुम्हें आकर्षित करते हैं तो इन नेत्रों को ही तुम्हारे अर्पित करती हूँ। कहकर रतिसुंदरी ने अपनी कटार से अपने दोनों नेत्र निकाल कर राजा के समक्ष डाल दिए। ___रतिसुंदरी के इस समर्पण ने कुरुनरेश को झकझोर दिया। उसने सती के चरणों पर गिरकर अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी। कुरुनरेश का जीवन उस क्षण के पश्चात् आमूल-चूल रूपान्तरित हो गया। रतिसुंदरी साधनामय जीवन यापन कर देवलोक में गई। आगे के भवों में वह मोक्ष में जाएगी। रत्नचन्द जी महाराज (शतावधानी) स्थानकवासी श्रमण परम्परा के एक विद्वद्वरेण्य मुनिराज। आप श्री का जन्म कच्छ प्रदेश के भोरारा गांव में वि.सं. 1936 को हुआ। आचार्य श्री गुलाबचन्द जी महाराज के चरणों में आपने आर्हती प्रव्रज्या धारण की। अध्ययन में आपकी विशेष रुचि थी। आपने हिन्दी, संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि भाषाओं का गहन अध्ययन किया। इन भाषाओं में आप निरन्तर लिख सकते थे और प्रवचन दे सकते थे। जैन सिद्धान्त कौमुदी, अर्द्धमागधि-कोष आदि आपकी उत्कृष्ट रचनाएं हैं। अन्य भी कई ग्रन्थों की रचना आपने की। 'भारतरत्न भूषण' की उपाधि से आप अलंकृत हुए। शतावधान की कला में आप प्रवीण थे। सौ व्यक्तियों के अलग-अलग प्रश्नों को सुनकर क्रमशः उनके उत्तर देने में आप कुशल थे। सन् 1940 में घाटकोपर मुम्बई में आपका स्वर्गवास हुआ। रत्नचन्द्र जी महाराज पूज्य श्री मनोहरदास जी महाराज की सम्प्रदाय के तेजस्वी संत। आपका जन्म गुर्जर कुल में जयपुर के निकटस्थ ग्राम तातीजा में वि.सं. 1850 में श्री गंगाराम जी की धर्मपत्नी श्रीमती सरूपादेवी की रत्नकुक्षी से हुआ। मात्र बाहर वर्ष की अवस्था में ही एक सिंह को गोशिशु पर आक्रमण करते देख आप विरक्त बने और आपने सं. 1862 में तपस्वी श्री हरजीमल जी महाराज के चरणों में दीक्षा अंगीकार कर ली। दीक्षित होकर आपने संस्कृत, प्राकृत, पाली आदि भाषाओं का तलस्पर्शी अध्ययन किया। बत्तीस ही आगमों का पारायण किया। साथ ही जैनेतर दर्शनों को भी आपने पढ़ा। अध्ययन रुचि से आपमें तर्क शक्ति का विकास हुआ। कई प्रसंगों पर आपने शास्त्रार्थ में भाग लेकर जैन दर्शन के ध्वज को ऊंचा किया। बलि प्रथा, पशु हत्या, जातिवाद आदि सामाजिक बुराइयों के आप प्रबल विरोधी थे। कई स्थानों से इन बुराइयों का उन्मूलन आपने किया। आप एक विद्वान मुनिराज थे। आप द्वारा रचित साहित्य प्रभावशाली और प्रामाणिक है। सं. 1921 में आगरा नगर में आपका स्वर्गवास हुआ। ...जैन चरित्र कोश... -479 ..
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy