SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के प्राप्त हुए। मोरध्वज नहीं चाहता था कि चिन्तामणि का उपयोग हो, पर प्रधीकुमार के बाल-स्वभाव के कारण स्वतः ही ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो गईं कि उसे वह सम्पदा ग्रहण करनी पड़ी। प्रधीकुमार की समृद्धि और मोरध्वज की महामंत्र के प्रति निष्ठा देखकर सभी नागरिक गद्गद बन गए। कालान्तर में पिता-पुत्र दोनों ही दीक्षित हो गए। दोनों ने मोक्ष प्राप्त किया। मोहनादेवी विहरमान तीर्थंकर प्रभु बाहुस्वामी ने राजकुमारी मोहनादेवी से कुमारावस्था में विवाह किया था। (दखिएबाहुस्वामी) मोहिनी ___एक राजकुमारी जिसका पाणिग्रहण नेमिप्रभ राजकुमार (सोलहवें विहरमान तीर्थंकर) से हुआ था। (दखिए-नेमिप्रभ स्वामी) मौर्य ब्राह्मण मौर्य ग्रामवासी काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण और भगवान महावीर के सप्तम गणधर मौर्यपुत्र के जनक। (दखिए-मौर्यपुत्र गणधर) मौर्यपुत्र (गणधर) भगवान महावीर के सातवें गणधर । वे मौर्य गांव के निवासी काश्यप गोत्रीय मौर्य ब्राह्मण तथा उसकी पत्नी विजयदेवी के पुत्र थे। वे चार वेद, छह शास्त्र, अठारह पुराण आदि के ज्ञाता और अधिकारी विद्वान थे। उन द्वारा स्थापित गुरुकुल में साढ़े तीन सौ ब्राह्मण छात्र विद्याध्ययन करते थे। इन्द्रभूति के समान ही मौर्यपुत्र भी अपापावासी सोमिल ब्राह्मण द्वारा आयोजित यज्ञ में सम्मानित याज्ञिक अतिथि के रूप में आमंत्रित हुए थे। इन्द्रभूति आदि छह ब्राह्मण विद्वानों द्वारा वैदिक परम्परा का त्याग करके श्रमणधर्म में दीक्षित हो जाना उन्हें बहुत अखरा। वे महावीर को शास्त्रार्थ में पराजित करने और ब्राह्मण-धर्म की ध्वजा को फहराने के उद्देश्य से भगवान के समक्ष पहुंचे। पर महावीर के सामने पहुंचते ही उनका सारा ज्ञान संचित ज्ञान सिद्ध हुआ। महावीर के आत्मज्ञान के समक्ष उनका अहंकार और भ्रम बर्फ की तरह पिघल गया। उनके हृदय में स्थित देवों की विद्यमानता या अविद्यमानता का संदेह महावीर ने न केवल प्रकाशित किया अपितु उसे समाधीत भी कर दिया। इससे मौर्यपुत्र प्रतिबुद्ध बन गए और अपने शिष्यों सहित महावीर के पास दीक्षित हो गए। वे सातवें गणधर नियुक्त हुए। उन्होंने पैंसठ वर्ष की अवस्था में दीक्षा धारण की। अस्सीवें वर्ष में केवलज्ञान प्राप्त कर, पिचानवें वर्ष का संपूर्ण आयुष्य जीकर वे सिद्ध -आवश्यक चूर्णि ... जैन चरित्र कोश ... --- 467 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy