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________________ महिपाल पृथ्वीपुर नगर के राजा वीरधवल का इकलौता पुत्र, एक धर्मात्मा और पुण्यात्मा युवक। महिपाल के तीन अनन्य व अंतरंग बाल सखा थे-मंत्रिपुत्र यशपाल, नगरसेठ-पुत्र श्रीपाल और राजपुरोहित-पुत्र पुण्यपाल। चारों में प्रगाढ़ प्रीतिभाव था। चारों की शिक्षा-दीक्षा साथ-साथ हुई थी। चारों ही हमउम्र थे और चारों के शौक भी समान थे। चारों एक साथ रहते, साथ-साथ खाते और साथ-साथ ही घूमने-टहलने जाते। चारों ही अपने अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे। एक बार चारों ने देशाटन का संकल्प किया। चारों अपने-अपने घरों से पर्याप्त धन लेकर बिना किसी को सूचित किए अश्वारूढ़ होकर देशाटन के लिए चल दिए। पूरे धन की एक पोटली बनाकर पुरोहित पुत्र पुण्यपाल को सौंप दी गई। यात्रा कई दिनों तक चलती रही। एक रात्रि में पुण्यपाल के मन में लोभ जाग गया कि इतना धन तो उसे जीवन भर परिश्रम करने पर भी प्राप्त नहीं होगा। इस धन को लेकर उसे भाग जाना चाहिए। रात्रि में ही पुण्यपाल धन की पोट लेकर भाग खड़ा हुआ। : प्रभात में तीनों मित्रों को पुण्यपाल के मैत्रिघात का पता चलना ही था। तीनों को पुण्यपाल के अलग हो जाने का कष्ट अधिक था, धन चले जाने का कष्ट कम। तीनों आगे बढ़े। महिपाल को प्यास लग गई। वह एक वृक्ष के नीचे बैठ गया। मित्रों से कहा-प्यास से उसका कण्ठ सूखा जा रहा है, कहीं से पानी की व्यवस्था करो। यशपाल और श्रीपाल पानी और फलों की तलाश में चले। उनके आने के बाद दुर्दैव से महिपाल को एक कृष्ण विषधर ने डस लिया। उधर आकाश मार्ग से एक विद्याधर अपने गन्तव्य पर जा रहा था। उसका विमान स्तंभित हो गया। उसने विमान को नीचे उतारा और सर्पदंशित युवक को देखा। महिपाल को अपने विमान में लेटाकर वह अपने नगर ले गया और मंत्रौषधियों से उसका उपचार किया। कुछ दिनों में महिपाल पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गया। स्वस्थ हो जाने पर उसे अपने मित्रों की स्मृति सताने लगी। विद्याधर ने उसे धैर्य दिया कि पुण्ययोग से उसके मित्र उसे अवश्य मिलेंगे। विद्याधर ने सर्वविध योग्य जानकर महिपाल के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। महिपाल सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगा। उधर मंत्री-पुत्र यशपाल वृक्ष के पास आया तो उसे महिपाल नहीं मिला। महिपाल और श्रीपाल को खोजते-खोजते वह महेन्द्रपुर नगर पहुंच गया। उसके पुण्य प्रबल बने और वह राजजामाता बन गया। मंत्री ने भी उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। महेन्द्रपुर नरेश सबलसिंह अपने जामाता यशपाल को राज्य देकर प्रवृजित हो गया। महेन्द्रपुर का राजा बनकर यशपाल सुखपूर्वक शासन करने लगा। वन में श्रीपाल की भेंट एक पल्लिपति से हुई। पल्लिपति मूलतः एक राजकुमार था और पल्लिपति के रूप में निर्वासित जीवन जी रहा था। पल्लिपति ने श्रीपाल से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया और उसे पल्लिपति का दायित्व देकर दीक्षित हो गया। श्रीपाल ने अपने मित्रों को खोजा, पर असफल रहा। पल्ली में रहकर ही वह सुखपूर्वक शासन करने लगा। पुण्यपाल धन की पोट लेकर आगे बढ़ा तो उसे डाकूओं ने लूट लिया और मार-पीटकर भगा दिया। वह एक भिखारी के रूप में दर-दर भटक कर उदर पोषण करने लगा। एक बार यशपाल ने मित्रों की खोज के लिए सेना सहित महेन्द्रपुर से प्रस्थान किया। उधर श्रीपाल ने भी मित्रों की खोज के लिए अभियान शुरू किया। ये दोनों एक जंगल में इकट्ठे हो गए। दोनों मित्रों की भेंट हुई। गद्गद हृदय से वार्तालाप करने लगे। जंगल मे एक मुनि को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। देवदुंदुभियां सुनकर दोनों मित्र कैवल्य महोत्सव में पहुंचे। विद्याधर के साथ महिपाल भी कैवल्य महोत्सव में उपस्थित ... 436 ... ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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