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________________ कर लिया और रिक्त हाथों से श्रीपुर नगर को त्याग कर वह अलक्षित पथ पर बढ़ चला । मतिसागर धर्म को प्राणों से भी बढ़कर मानता था। धर्म के बल पर उसने जंगल से गुजरते हुए एक राक्षस का हृदय जीता। एक यक्ष ने उस की धार्मिकता पर प्रसन्न बनकर उसे कामघट नामक एक घड़ा दिया जो इच्छित पदार्थ तत्क्षण उपस्थित कर देता था। राक्षस से मंत्री ने एक ऐसा दण्ड प्राप्त किया जो आदेश पाकर हजारों कोस पर रहे हुए शत्रुओं को दण्डित कर सकता था। एक सार्थ- संघपति से उसने दिव्य चमरयुगल और राजकीय छत्र प्राप्त किए। इन दिव्य वस्तुओं के साथ मंत्री अपने नगर में लौटा। कामघट के द्वारा उसने एक सप्तमंजिले देवविमान तुल्य भवन का निर्माण कराया और उसमें रहने लगा। रातों-रात विशाल महल तैयार होने की सूचना फैलते फैलते राजा तक भी पहुंची । वास्तविकता को जानकर राजा अत्यंत प्रभावित हुआ। राजा और मंत्री का मिलन हुआ। परंतु राजा तब भी अंतर्हृदय से धर्म की महिमा को मानने को तैयार था। एक प्रसंग पर राजा ने मंत्री से कहा, ये सब दिव्य वस्तुएं संयोग से तुम्हें मिल गई हैं। इसमें धर्म की महिमा जैसी कोई बात नहीं है। यदि एक बार तुम पुनः अपनी पत्नी के साथ दूर देशों में जाकर समृद्धि अर्जित कर सको तो मैं धर्म की महिमा को स्वीकार कर सकता हूँ । मंत्री मतिसागर के तन-मन-प्राण में धर्म बसा हुआ था। वह सोचता था कि यदि राजा धर्मरुचि सम्पन्न होगा तो प्रजा भी धर्मरुचि सम्पन्न होगी। इसलिए राजा के मन में धर्मभाव का जागरण आवश्यक है। इसी सोच से प्रेरित बनकर उसने एक बार पुनः अपना सर्वस्व त्याग कर अपनी पत्नी विनयसुन्दरी के साथ श्रीपुर नगर से प्रस्थान कर दिया। कई दिन यात्रा करने पर मतिसागर और उसकी पत्नी एक तटीय नगर में पहुंचे। उन्होंने देखा - एक समुद्री व्यापारी माल से जहाज भर कर यात्रा के लिए तैयार है और समुद्री बाधाओं से बचने के लिए अनुष्ठान रूप में याचकों को दान दे रहा है । मतिसागर ने अपनी पत्नी को पास के उद्यान में प्रतीक्षा करने को कहा और सेठ से कुछ पाने की आशा में उसके जहाज पर गया। संयोग से उसके जहाज पर पहुंचते ही जहाज चल दिया। मतिसागर ने इसे भवितव्यता के रूप में माना और सेठ के साथ रहना स्वीकार किया। उधर उसकी पत्नी विनयसुन्दरी को एक धार्मिक कुंभकार के घर शरण प्राप्त हो गई । रत्नद्वीप पर सेठ का जहाज पहुंचा। मतिसागर सेठ का विश्वसनीय मित्र बन चुका था। सेठ ने व्यावसायिक दायित्व उस को प्रदान कर दिया । व्यवसाय के कुशल संचालन से मतिसागर ने पर्याप्त धन अर्जित किया। उधर रत्नद्वीप नरेश शक्रपुरन्दर के समक्ष एक ऐसी जटिलता उपस्थित हुई जिसे कोई भी हल न कर सका। आखिर मतिसागर ने ही उस जटिलता का समाधान किया। राजा इससे इतना प्रसन्न हुआ कि उसने अपनी पुत्री का विवाह मतिसागर से कर दिया और उसे आधा राज्य भी दे दिया। मतिसागर के इस सम्मान से सेठ को उससे ईर्ष्या हो गई। मतिसागर को अपनी पत्नी विनयसुन्दरी की याद सताने लगी तो उसने प्राप्त राज्य राजा को लौटाकर यात्रा की तैयार की। राज्य के बदले में श्वसुर राजा ने मतिसागर को हीरे-जवाहरात और सोने- चांदी से भरे . हुए पचास जहाज भेंट किए। यात्रा प्रारंभ हुई। सेठ भी अपने जहाज पर सवार होकर यात्रायित हुआ । सेठ के मन में मतिसागर की समृद्धि के प्रति ईर्ष्या और उसकी सद्यपरिणीता राजकुमारी पत्नी के प्रति कामाकर्षण प्रबल बन चुका था । उसने मधुर शब्दों से मोहित बनाकर मतिसागर को अपने जहाज पर आमंत्रित किया और अवसर साधकर उसे समुद्र में फैंक दिया। सेठ ने मतिसागर की पत्नी को संवेदना दी और उसे अपनी पत्नी बनाने के लिए अनेकविध यत्न किए। पर राजकुमारी की कुशलता से सेठ का मनोवाञ्छित स्वप्न साकार न हो सका । ... 412 जैन चरित्र कोश •••
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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