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________________ करने वाले आचार्य थे। आचार्य मंगू बीस वर्षों तक आचार्य पाट पर रहे। वी. नि. सं. 470 में उनका स्वर्गवास अनुमानित है। - नन्दी स्थविरावली मंसूर (आचार्य) जैन धर्म के एक प्रभावक और सूत्रधर आचार्य । उनकी शिष्य संपदा विशाल थी । एक समय आर्य मंसूरि मथुरा में पधारे। मथुरावासियों की अतिशय भक्ति उनके लिए प्रमाद का कारण बन गई। प्रमाद बनकर मथुरा में ही वे स्थिरवासी बन गए। प्रमादी अवस्था में ही मरकर वे यक्षयोनि में उत्पन्न हुए। यक्षयोनि में जन्म लेकर मंगूसूरि को अपने प्रमाद पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। एक बार उन्होंने विचित्र रूप धारण कर प्रमाद के प्रति अपने शिष्यों को प्रतिबोधित भी किया था। - निशीथचूर्णि भाग 2-3 मंजुला म महासती मंजुला का परिचय - चित्र महासती अंजना के चरित्र से पर्याप्त समानता लिए हुए है। इस पर भी उसमें पर्याप्त मात्रा में नवीनता और मौलिकता भी है। मंजुला एक श्रेष्ठि-कन्या थी और उसका विवाह - श्रीपुर नगर के युवा श्रेष्ठि - पुत्र श्रीकान्त से हुआ था । श्रीकान्त का व्यापार दूर देशों तक फैला हुआ था । संयोग कुछ ऐसा बना कि विवाह के दिन ही श्रीकान्त को विदेश जाना पड़ गया। विदेश में एक तपस्वी साधु श्रीकान्त की सेवाराधना से प्रसन्न हो गया। एक रात्रि में साधु ने श्रीकान्त से कहा कि आज की रात्रि में फलां नक्षत्र-काल में जो स्त्री गर्भ धारण करेगी, उसका पुत्र महान पुण्यशाली होगा और जब वह हंसेगा तो उसके मुख से लाल झरेंगे । कहकर साधु ने एक हंस श्रीकान्त को दिया और सख्त निर्देश दिया कि प्रभात खिलने से पूर्व ही वह उसका हंस उसे लौटा दे। साधु के निर्देशानुसार श्रीकान्त हंस पर सवार होकर अपने नगर में अपनी पत्नी के पास पहुंचा। पत्नी को अपने मिलने के प्रमाण के रूप में मुद्रिका प्रदान कर वह प्रभात खिलने से पूर्व ही साधु के पास लौट आया और उसे उसका हंस लौटा दिया। चार मास बीतने पर मंजुला के गर्भ के लक्षण प्रगट होने लगे । परिणामतः वही हुआ जो संभाव्य था । मंजुला की एक भी बात सास और ननद ने नहीं सुनी और कलंकिनी का काला तिलक लगा कर मंजुला को घर से निकाल दिया। मंजुला बुद्धिमती और धर्मप्राण सन्नारी थी। महासती अंजना का आदर्श उसके सम्मुख था। सो पीहर में न जाकर वह एक जंगल में चली गई। एक गिरिगुहा में रहकर धर्मध्यान पूर्वक उसने गर्भपालन किया और नौ मास के पश्चात् एक पुत्र को जन्म दिया। पर इतने से उसका दुर्दैव संतुष्ट नहीं हुआ । पुत्र को जन्म देते ही उसे पुत्रविरह की प्रलम्ब काल- रात्रि काटनी पड़ी । चन्द्रकान्त पुर नगर के राजा जयशेखर ने मंजुला की एक हाथी से रक्षा की और उसे अपने महल में ले गया। पर मंजुला की युक्ति से उसके शील का रक्षण हो गया। उधर श्रीकान्त अपने नगर लौटा तो वस्तुस्थिति का परिचय पाकर अधीर बन गया। उलटे पांवों वह पत्नी की खोज में निकल गया । आखिर चन्द्रकान्तपुर में पति-पत्नी का मिलन हो गया। युक्ति से राजा के चंगुल से निकलकर मंजुला अपने पति के साथ श्रीपुर के लिए चल दी। उधर मंजुला के पुत्र का लालन-पालन एक बनजारे के संरक्षण में हुआ। बनजारा निःसंतान था और उसने जंगल से प्राप्त नवजात शिशु को अपना पुत्र मानकर उसका पालन-पोषण किया और उसका नाम कुसुमसेन रखा । श्रीपुर पहुंचने से पूर्व ही मंजुला और श्रीकान्त पुनः बिछुड़ गए। श्रीकान्त को एक सर्प ने काट लिया । वह शीघ्र ही मृतप्राय हो गया। उधर एक बनजारे के काफिले से अपने शील की रक्षा के लिए मंजुला एक ** जैन चरित्र कोश ••• ... 406
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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