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लक्ष्मीधर ने अनेक वैद्यों से अपनी पुत्री की चिकित्सा कराई, पर पानी की तरह धन बहाकर भी वह अपनी पुत्री को व्याधि-मुक्त नहीं बना सका।
भवानी के घर के निकट ही उपाश्रय था। एक बार वहां कुछ आर्यिकाएं पधारी । पुण्योदय से भवानी भी आर्यिकाओं के संपर्क में आई। निर्ग्रन्थ प्रवचन सुनकर भवानी को सम्यक्त्व-रत्न की प्राप्ति हुई। उसके हृदय में तत्वरुचि निरन्तर वर्धमान होती गई। उसने उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत अंगीकार किया और बहुत थोड़ी-सी वस्तुओं का आगार रखकर समस्त वस्तुओं का परित्याग कर दिया। उसने केवल त्याग ही नहीं किया, सुदृढ़-चित्त से उसका पालन भी किया। व्रत-निष्ठा से उसने अशुभ कर्मों को जला दिया। उसकी ख्याति दिग्दिगन्तों में परिव्याप्त हो गई। देवराज इन्द्र ने भी देवसभा में भवानी की व्रत-निष्ठा की प्रशंसा की। एक देव भवानी की परीक्षा के लिए आया। उसने एक वैद्य का रूप धरा और भवानी के पास पहुंचा। उसने भवानी के समक्ष एक मधुर फल रखा और बोला, वत्से! यह अमृतफल है, इसे खाने से तुम्हारे समस्त रोग शान्त हो जाएंगे। भवानी ने अपने व्रत की बात बताकर वैद्य द्वारा दिया गया फल खाने से इन्कार कर दिया। वैद्य और परिजनों ने अपवाद मार्ग, औषध-आगार आदि के कई तर्क देकर भवानी को फल खाने के लिए मनाया, पर भवानी अपने व्रत पर सुदृढ़ रही। उसने स्पष्ट कर दिया कि रोगिणी रहना स्वीकार है पर व्रत-भंग स्वीकार नहीं है।
देव भवानी की व्रत-निष्ठा देखकर दंग रह गया। उसने वास्तविक रूप में प्रकट होकर भवानी की व्रतनिष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसने दिव्य शक्ति द्वारा भवानी को रोगमुक्त बना दिया और रत्नों की वर्षा से उसके घर को भरकर अपने स्थान पर चला गया। भवानी का सम्मान बहुत बढ़ गया। महेश्वर नामक धनी व्यापारी से उसका विवाह हुआ। भवानी और महेश्वर ने व्रतनिष्ठ जीवन जीया।
महेश्वर आयुष्य पूर्ण कर अगले जन्म में चम्पानगरी का सहस्रवीर्य नामक राजा बना। भवानी उसी नगरी के मंत्री बहबद्धि की पत्री बनी। मंत्री पत्री के जन्म से पूर्व चम्पानगरी में घोर अकाल छाया हआ था। मानव और पशु अन्न और जल के एक-एक कण के लिए तरस रहे थे। मंत्री पुत्री के जन्म के साथ ही चम्पानगरी से अकाल विदा हो गया। सर्वत्र सुभिक्ष और आनन्द व्याप्त हो गया। मंत्री पुत्री युवा हुई तो उसका विवाह पूर्वजन्म के सम्बन्ध के कारण महाराज सहस्रवीर्य से ही हुआ। राजा और रानी ने धर्मनिष्ठ जीवन जीया। आयु के उत्तरपक्ष में संयम धारण किया और निरतिचार चारित्र की परिपालना से केवलज्ञान प्राप्त कर दोनों मोक्ष पधारे। -जैन कथा रत्न कोष, भाग 4 / श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र (रत्नशेखर सूरि कृत) भविष्यदत्त __ हस्तिनापुर नगर के नगरसेठ धनसार का पुत्र, परम साहसी और धर्मप्राण युवक। उसकी माता का नाम कमलश्री था। सेठ और सेठानी में परस्पर अनन्य अनुराग था। पर पूर्वजन्म के कुछ कर्म उदय में आए और धनसार का अनुराग कमलश्री पर से समाप्त हो गया। उसने कमलश्री की इच्छा के विरुद्ध उसे उसके पीहर रवाना कर दिया और एक अन्य श्रेष्ठीकन्या स्वरूपश्री से विवाह कर लिया। स्वरूपश्री से भी सेठ को एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसका नाम बंधुदत्त रखा गया।
भविष्यदत्त माता-पिता और वृद्धजनों का सेवा, सत्कार और सम्मान करता था। मुनिजनों के चरणों में बैठकर धर्म और कर्म के मर्म को समझता था। इसके विपरीत बंधुदत्त उच्छृखल वृत्ति का युवक था। उसके अन्दर ईर्ष्या, द्वेष और वैमनस्य के भाव थे। परिणामतः भविष्यदत्त को सब जगह मान और सम्मान मिलता और बंधुदत्त को उपेक्षा प्राप्त होती। इससे बंधुदत्त मन ही मन भविष्यदत्त से ईर्ष्याभाव रखने लगा। एक ...384
--. जैन चरित्र कोश ...