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________________ सम्राट् हुआ। महाराज चंद्रगुप्त द्वारा प्रव्रज्या धारण कर लेने पर उसने ई.पू. 298 में शासन सूत्र संभाला। उसने पिता द्वारा अर्जित राज्य का और भी विस्तार किया। यूनान और मिस्र आदि देशों के शासकों के साथ भी उसके मैत्री सम्बन्ध थे । उसकी कई रानियों में हेलेन यूनान नरेश सेल्युकस की पुत्री 1 बिंदुसार अपने पिता की ही तरह जैन धर्म के प्रति आस्थावान थे । अपने गुरु भद्रबाहु और चंद्रगुप्त के साधना-स्थल श्रवणबेलगोल की उसने यात्रा की और वहां कई जिनालयों की भी उसने स्थापना कराई। ई.पू. 273 में बिंदुसार का निधन हुआ। बुधजन (कवि ) उन्नीसवीं सदी के एक जैन कवि । उनका जन्मना नाम वृद्धिनंद था, पर साहित्य में वे 'बुधजन' उपनाम से ही विश्रुत हैं। आप द्वारा रचित छह ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनकी नामावलि निम्नोक्त है 1. तत्त्वार्थ बोध, 2. योगसार भाषा, 3. पञ्चास्तिकाय, 4. बुधजन सतसई, 5. बुधजन विलास, 6. पदसंग्रह | काव्य तत्त्वों की दृष्टि से आपकी रचनाएं भले ही उच्चकोटि की न हों, पर नीति और उपदेश की दृष्टि से उच्चकोटि की हैं। सरल शब्दावलि में प्रस्तुत आपके नैतिक संदेश श्रोताओं को मार्मिक प्रेरणाएं प्रदान करते हैं। आपकी रचनाओं पर राजस्थानी का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । - तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा (चतुर्थ भाग ) बृहस्पतिदत्त अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व कौशाम्बी का रहने वाला एक मित्रद्रोही और दुराचारी ब्राह्मण, जो पूर्वजन्मों के कुसंस्कारों को निधि रूप में अपने साथ लेकर पैदा हुआ था। अपने पूर्वजन्म में वह सर्वभद्र नगर के राजा जितशत्रु का राजपुरोहित था । उसका नाम महेश्वरदत्त था । वह शास्त्रों और पुराणों का विद्वान तो था पर उसकी वृत्ति घोर हिंसामय थी। उसने पशु - बलि और मानव - बलि को शास्त्रसम्मत सिद्ध कर राजा से मनचाही बलि देने का अधिकार पा लिया था। वह प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- - चारों वर्णों के दो-दो बच्चों की आहुति यज्ञ वेदी पर देता था। चौथे महीने सोलह बालकों की, छठे महीने बत्तीस बालकों की तथा वर्षान्त में चौंसठ बालकों की बलि देता था । राज्य की वृद्धि अथवा शत्रु आदि से राज्यरक्षण का बहाना बनाकर वह कभी-कभी एक साथ चार सौ बत्तीस बालकों को यज्ञ वेदिका पर होम देता था। बहुत वर्षों तक क्लिष्ट कर्मों का उपार्जन करने के पश्चात् महेश्वरदत्त मरकर पांचवीं नरक में गया । वहां का दुखमय आयुष्य भोगकर वह कौशाम्बी नगरी निवासी सोमदत्त पुरोहित की पत्नी वसुदत्ता के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जहां उसका नाम बृहस्पतिदत्त रखा गया । बृहस्पतिदत्त युवा हुआ तो राजकुमार उदायन के साथ उसकी मित्रता हो गई। महाराज शतानीक की मृत्यु के पश्चात् उदायन कौशाम्बी का राजा बना । उसने बृहस्पतिदत्त को अपना राजपुरोहित बना लिया । राजा उसका मित्र तो था ही, सो उसका आवागमन अन्तःपुर तक होता था । वह स्वभावतः दुराचारी तो था ही, सो उसने मित्र का विश्वासघात कर उसकी रानी पद्मावती से अनुचित सम्बन्ध कायम कर लिए । पर पाप कब तक अप्रकट रहता! राजा ने एक दिन उसे आपत्तिजनक स्थिति में देख लिया । उसके क्रोध का पार न रहा। उसने उसे बन्दी बनवाकर विभिन्न यातनाएं दिलाईं और शूली पर चढ़वा दिया। वह मरकर नरक में गया। लम्बे समय तक वह अनन्त संसार में भ्रमण करके सिद्ध होगा । - विपाक सूत्र 5 *** जैन चरित्र कोश - +371 044
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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