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________________ वहां उसे प्रभु पार्श्व की परम्परा के संवाहक आचार्य केशीकुमार श्रमण के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। चित्त ने केशीकुमार श्रमण से श्वेताम्बिका पधारने की प्रार्थना की। उचित अवसर पर केशीकुमार श्रमण श्वेताम्बिका नगरी पधारे। महामात्य चित्त के आदेश पर मृगवन के रक्षकों ने मुनियों के ठहरने की समुचित व्यवस्था की। फिर एक दिन चित्त अश्व परीक्षा के बहाने प्रदेशी राजा को मृगवन में ले आया। राजा वहां ठहरे मुनियों को देखकर जल-भुन गया। पर चित्त की वाग्कुशलता में घिरकर वह मुनियों से संवाद के लिए तैयार हो गया। आखिर केशीकुमार श्रमण और राजा प्रदेशी के मध्य प्रलम्ब संवाद चला। उस संवाद ने प्रदेशी की जीवन धारा को बदल दिया। राजा जितना हिंसक और क्रूर था, उतना ही अंहिसक और दयालु बन गया। वह बेले-बेले तप करने लगा। पर उसका यह बदला हुआ रूप उसकी रानी सूरिकान्ता को नहीं सुहाया और उसने तेरहवें तेले के पारणे में राजा को विष दे दिया। समभावपूर्वक देहोत्सर्ग कर राजा प्रथम देवलोक में गया। वहां से महाविदेह मे जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा। -रायपसेणी सूत्र प्रद्युम्न कुमार श्री कृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र । अपने पिता के समान ही प्रबल पराक्रमी। त्रिषष्टि शलाका चरित्र के अनुसार कथा इस प्रकार है- एक बार रुक्मिणी अपने महल में बैठी थी। सत्यभामा भी उसके पास थी। अतिमुक्तक मुनि भिक्षा के लिए आए। रुक्मिणी ने मुनि को भिक्षा दी तथा पूछा कि वह पुत्रवती बनेगी अथवा नही। मुनि ने उसे एक पराक्रमी पुत्र की मां होने की बात कही। मुनि के चले जाने के बाद सत्यभामा और रुक्मिणी में यह विवाद छिड़ गया कि मुनि ने उसके लिए वरदान दिया है। विवाद बढ़ा, आखिर श्री कृष्ण की साक्षी से यह तय हुआ कि जो पहले पुत्रवती बनेगी, दूसरी को उसके पुत्र के विवाह के प्रसंग पर मुंडन कराना होगा। यथासमय रुक्मिणी और सत्यभामा ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। पहले रुक्मिणी मां बनी, बाद में सत्यभामा। रुक्मिणी के पुत्र का नाम प्रद्युम्न कुमार और सत्यभामा के पुत्र का नाम भानुकुमार रखा गया। एक दिन एक पूर्वजन्म के वैरी देव ने नवजात प्रद्युम्न कुमार का हरण कर लिया। वह उसे मारना चाहता था। पर प्रद्युम्न के प्रबल पुण्य के कारण देव के विचार बदल गए। उसने उसे एक पर्वत शिखर पर इस विचार से रख दिया कि वह स्वतः ही मर जाएगा। संयोग से उधर से मेघकूट नगर का विद्याधर राजा मेघसंवर गुजरा। शिशु पर उसकी दृष्टि पड़ी। वह निःसंतान था। शिशु को पर्वतराज का उपहार मानकर उसने ग्रहण कर लिया और अपनी रानी कनकमाला को लाकर सौंप दिया। कनकमाला प्रसन्न चित्त से प्रद्युम्न कुमार का पालन करने लगी। ___पुत्र विरह में श्रीकृष्ण और रुक्मिणी अधीर हो गए थे। नारद जी ने भगवान सीमंधर स्वामी से पूरी बात पूछकर तथा द्वारिका लौटकर श्रीकृष्ण और रुक्मिणी को बताया कि उनका पुत्र सकुशल है और उन्हें सोलह वर्ष बाद मिलेगा। उधर प्रद्युम्न कुमार सोलह वर्ष का हो गया। वह अनेक विद्याओं में पारंगत बन गया। रति नामक एक विद्याधर-कन्या से उसका विवाह हो गया। एक बार प्रद्युम्न के रूप पर मोहित होकर उससे कनकमाला ने अकल्प्य प्रार्थना की। प्रद्युम्न के कठोर विरोध पर, त्रियाचरित्र दिखाकर उसे राजा की दृष्टि से गिरा दिया। म्लानमुख प्रद्युम्न बगीचे में बैठे थे। नारद जी ने आकर प्रद्युम्न को उसका वास्तविक परिचय दिया तथा साथ ही यह भी बताया कि भानुकुमार से विवाह के प्रसंग पर उसकी माता का मुण्डन होने वाला है। प्रद्युम्न तत्क्षण नारद जी के साथ आकाश मार्ग से द्वारिका पहुंचे। अपने प्रबल पराक्रम से न केवल बलराम आदि वीरों को परास्त किया अपितु श्री कृष्ण .. 350 - - जैन चरित्र कोश ....
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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