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________________ स्थान पर मृत्यु का वरण श्रेयस्कर मानता था । धनसेठ ने चिन्तन किया, श्रमण जन धन्य हैं, जो समस्त सांसारिक बंधनों, आदेशों और निर्देशों से मुक्त हैं। उसके इस चिन्तन से आकर्षित होकर शासन सहायक देवों ने उपस्थित होकर उसे मुनिवेश प्रदान किया । धनसेठ ने मुनिव्रत अंगीकार कर लिए। इस चमत्कार से राजा और प्रजा चमत्कृत हो गए। राजा ने धन मुनि के चरणों पर लेट कर अपने कटु वचनों के लिए क्षमा मांगी। धन मुनि समता की साधना में तल्लीन हो गए। उत्कृष्ट तप की आराधना और निरतिचार संयम की परिपालना से केवलज्ञान प्राप्त कर धन मुनि सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो गए। - जैन कथा रत्न कोष, भाग 6 / श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र ( रत्नशेखर सूरिकृत ) (ख) धनसेठ उज्जयिनी के कोटीश्वर श्रेष्ठी । उनके पुत्र का नाम अयवंती सुकुमाल था । (देखिए - अयवंती सुकुमाल) (ग) धनसेठ अवन्ती नगरी का एक धनी सेठ । (देखिए अतूंकारी भट्टा) (क) धनावह कौशाम्बी का एक धर्मनिष्ठ जैन श्रावक । उसने राजकुमारी चन्दनबाला को गणिकाओं के चंगुल से पच्चीस लाख स्वर्णमुद्राएं व्यय कर मुक्त कराया था। (देखिए - चन्दनबाला (ख) धनावह (देखिए - विजय-विजया) धनेश्वर सूरि (आचार्य) राजगच्छ के एक विद्वान आचार्य । आचार्य धनेश्वर सूरि मुनिधर्म में प्रव्रजित होने से पूर्व त्रिभुवनगिरि नामक राज्य के राजा थे। गृहवास में उनका नाम कर्दमराज था। एक बार कर्दम राजा के शरीर पर विषैले फफोले निकल आए। फफोलों से तीव्र जलन उत्पन्न होती थी । कर्दमराज को पल भर के लिए भी शान्ति प्राप्त नहीं होती थी । अनेक उपचार कराए गए, पर सभी निष्फल सिद्ध हुए । नगरी में राजगच्छ के आचार्य तर्क पंचानन अभयदेव सूरि का पदार्पण हुआ। राजा मुनि दर्शन के लिए उपस्थित हुआ। आचार्य श्री की सन्निधि में बैठने पर उसे कुछ-कुछ शान्ति का अनुभव हुआ। उसने विचार किया, मुनि के निकट आने मात्र से उसे दैहिक और मानसिक शान्ति का अनुभव हुआ है, यदि वह स्थायी रूप से आचार्य श्री के निकट रहे तो निश्चित ही उसे महालाभ होगा। राजा ने प्रासुक जल से आचार्य श्री के चरण धोकर चरणोदक ग्रहण कर उसका पान किया और शेष चरणोदक को अपने शरीर पर छिड़का। वैसा करने से क्षण भर में ही उसकी व्याधि शान्त हो गई। राजा अतिशय प्रभावित हुआ और राजपाट का परित्याग कर आचार्य अभयदेव के पास दीक्षित हो गया। आचार्य अभयदेव ने राजर्षि कर्दमराज को नवीन नाम 'धनेश्वर' प्रदान किया। कालक्रम से धनेश्वर मुनि की आचार्य पद पर नियुक्ति हुई। राजर्षि धनेश्वर सूरि अपने युग के महाप्रभावी आचार्य हुए। कई राजा उनके भक्त बने । चित्तौड़ के अठारह हजार ब्राह्मणों ने आचार्य धनेश्वर के प्रवचन से प्रतिबोधित होकर जैनधर्म अंगीकार किया था । जैन चरित्र कोश ••• *** 280
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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