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________________ जैसे महान पुत्र को जन्म दिया। श्राविका धर्म का सम्यक् पालन कर वह स्वर्गस्थ हुई । जन्मान्तर में सर्वकर्म खपा कर वह सिद्ध होगी। देवकुमार लक्ष्मीनिवास नगर के सेठ प्रज्ञाकर और सेठानी प्रज्ञावती का आत्मज, एक परम पुण्यशाली जीव । श्रेष्ठ पुत्र होते हुए भी युवावस्था में वह राजा बना। यह उसके पूर्वजन्म के पुण्यों का ही चमत्कार था। एक बार उसने एक ज्ञानी मुनि से अपने पूर्वजन्म के बारे में पूछा तो मुनि ने उसे बताया कि पूर्वजन्म में वह हस्तिनापुर नगर का सुमति नामक व्यापारी था। उसकी माता पौषधव्रत की आराधना करती थी और वह अपनी माता को उसकी आराधना में सहयोग देता था और पौषध की अनुमोदना करता था। उसी सहयोग और अनुमोदना का यह फल है कि तुम वर्तमान भव में राजा बने हो । देवकुमार ने विचार किया, पौषधव्रत के लिए दिए गए सहयोग और उसकी अनुमोदना का ऐसा उत्कृष्ट प्रतिफल है तो स्वयं पौषध की आराधना करने का फल तो निश्चित ही उत्कृष्टतम होगा। ऐसा विचार कर उसने मुनि श्री से पर्व-तिथियों के दिनों में पौष करने का प्रण ले लिया और पूर्ण श्रद्धाभाव से उस नियम का परिपालन करने लगा । एक समय एक शत्रु राजा ने राजा देवकुमार को युद्ध के लिए ललकारा। देवकुमार सेना सजाकर युद्ध के मैदान में पहुंच गया। सहसा देवकुमार को स्मरण हुआ कि दूसरे ही दिन पर्व का दिन है और ग्रहीत नियमानुसार उसे पौषध करना है। देवकुमार ने शत्रु राजा के पास प्रस्ताव भेजा कि एक दिन विलम्ब से युद्ध शुरू किया जाए जिससे मैं अपने नियम का पालन कर सकूं। पर शत्रु राजा ने देवकुमार का प्रस्ताव ठुकरा दिया। इस पर भी देवकुमार अपने निश्चय पर अटल रहा। दूसरे दिन प्रभात खिलते ही अपने छावनी - कक्ष में वह पौषध की आराधना करने लगा। उसके सैनिकों ने उसे युद्ध कर्त्तव्य के लिए प्रेरित किया, आशंका व्यक्त की कि ऐसे में शत्रु हावी होकर उनके राज्य को छीन सकता है। पर इन प्रेरणाओं का देवकुमार पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। वह अपनी साधना में तल्लीन रहा। राजा को निष्प्रभावी देखकर सैनिक हतोत्साहित •बन गए। जैसे ही शत्रु ने आक्रमण किया, देवराज के सैनिक भाग खड़े हुए। शत्रु के सैनिकों ने पौषध की आराधना में तल्लीन राजा देवकुमार को चारों ओर से घेर लिया। मृत्यु को सम्मुख देखकर भी देवकुमार अभय था । न उसे अपने सैनिकों पर रोष था और न शत्रु सैनिकों पर द्वेष । वह परम समता भाव में लीन था। शत्रु-सैनिकों ने जैसे ही देवकुमार का वध करना चाहा, वैसे ही शासन देवी का शासन कम्पित हुआ । शासन देवी ने तत्क्षण वहां उपस्थित होकर शत्रु पक्ष के सैनिकों को स्तंभित कर दिया और उनके शरीरों में दाह उत्पन्न कर दिया। शत्रु सैनिक त्राहि-त्राहि कर उठे । शत्रु राजा की विशेष प्रार्थना पर शासन देवी ने उसके सैनिकों को स्वस्थ किया। शत्रु राजा देवकुमार के चरणों में नत हो गया और उसकी अधीनता स्वीकार कर लौट गया । देवकुमार के सैनिक धर्म का साक्षात् चमत्कार देखकर लौट आए और अपने नरेश की जयजयकार करने लगे । राजा देवकुमार ने पौषध की निरन्तर आराधना के साथ अपनी प्रजा में भी पौषध रुचि जगाई। उसने अनेक उपाश्रयों और पौषधशालाओं का निर्माण कराया। लक्ष्मीनिवास नगर के लोग बढ़-चढ़कर पौषध की आराधना करने लगे । किसी समय एक चोर ने नगर के एक श्रेष्ठी के घर में सेंध लगाई। सैनिकों ने चोर को देख लिया । चोर सैनिकों से बचकर भागा। सैनिक उसके पीछे थे। चोर वन में पहुंचकर एक लताकुंज में छिप गया। वहां एक मुनि ध्यानस्थ थे। चोर ने मुनि से त्राण की प्रार्थना की। मुनि ने कहा, वत्स ! धर्म ही एकमात्र त्राण है • जैन चरित्र कोश ••• *** 250
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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