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________________ था कि वैसा करने पर ही पिता के वचन की रक्षा और माता कैकेयी की इच्छापूर्ति हो सकती है। लक्ष्मण और सीता ने श्रीराम का अनुगमन किया । सम के वनगमन से भरत और कैकेयी को बहुत दुख हुआ । राम को वापिस लाने के लिए वे दोनों जंगल में भी गए। पर प्रण के धनी श्रीराम ने सभी को समझा-बुझाकर वापस लौटा दिया। दशरथ का वैराग्य और अधिक परिपक्व बन गया। मुनि दीक्षा धारण कर उन्होंने उत्कृष्ट संयम का पालन किया और उत्तम गति के अधिकारी बने । - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व 7 दशार्णभद्र राजा दशार्णभद्रपुर नगर का एक श्रमणोपासक शासक । भगवान महावीर के प्रति उसके हृदय में अनन्य आस्था थी। भगवान के सुख-संवाद जानकर ही वह प्रतिदिन अन्न-जल ग्रहण करता था । एक बार भगवान उसके नगर में आए। राजा ने विचार किया कि अपने प्रभु की पर्युपासना के लिए ऐसे ऐश्वर्य के साथ जाऊं कि पहले कोई न गया हो । पूर्ण साज-सज्जा और ऐश्वर्य के साथ राजा अपने प्रधान हस्ती पर आरूढ़ होकर प्रभु की पर्युपासना को चला। अपनी ऋद्धि और समृद्धि पर राजा मन ही मन इतरा रहा था । सौधर्मेन्द्र ने राजा के अहं को देखा । भक्ति में भी अहं, उसे यह बात उचित न लगी। राजा के अहं के खण्डन के लिए उसने एक विशाल हाथी बनाया, जिसके पांच सौ मुंह थे। प्रत्येक मुंह पर आठ-आठ दन्तशूल, प्रत्येक दन्तशूल पर आठ-आठ विशाल बावड़ियां, प्रत्येक बावड़ी में एक लाख पंखुड़ी वाला कमल और कमल की प्रत्येक पंखुड़ी पर बत्तीस प्रकार के नाटक खेले जा रहे थे। इस दिव्य समृद्धि के साथ इन्द्र दशार्णभद्र राजा के निकट से गुजरा। उस आश्चर्यजनक समृद्धि को देखकर राजा का अहं गल गया। साथ ही वह इस सत्य को भी समझ गया कि इन्द्र ने उसे नीचा दिखाने के लिए यह उपक्रम किया है। उसने विचार किया - इन्द्र उसे भौतिक समृद्धि में तो परास्त कर सकता है पर आध्यात्मिक समृद्धि में वह उसे परास्त नहीं कर सकता। ऐसा विचार कर राजा भगवान के पास पहुंचा और समस्त भौतिक समृद्धि का परित्याग कर महावीर के चरणों में दीक्षित हो गया। इन्द्र राजा के मनोभावों का अध्ययन कर रहा था। राजा की इस महाव्रत रूपी समृद्धि का मुकाबला करने का उसके पास कोई उपाय नहीं था । वह राजा से श्रमण बने दशार्णभद्र के चरणों में नत हो गया। तप और संयम की उत्कृष्ट परिपालना के बाद केवलज्ञान प्राप्त कर दशार्णभद्र ने सिद्धि प्राप्त की । -ठाणांग वृत्ति 10 दामिया सेठ (देखिए- गुणपाल) दामनक राजगृह नगर का रहने वाला एक युवक । यौवन द्वार तक पहुंचते-पहुंचते उसके जीवन में तीन ऐसे अवसर आए, जब उसकी हत्या के षड्यन्त्र रचे गए, पर पूर्व पुण्यों के बल पर वह तीनों ही बार बच गया । इतना ही नहीं, उसने न केवल भौतिक समृद्धि के शिखर स्पर्शे, बल्कि आयु के अन्तिम पड़ाव पर संयमशिखरों का भी स्पर्श किया। *** 242 - जैन चरित्र कोश •••
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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