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________________ कथ महावीरकालीन एक श्रमणोपासक एवं समृद्ध गाथापति, जिसके समझाने पर श्रमणी प्रियदर्शना जमाली का साथ छोड़कर पुनः भगवान महावीर के धर्म संघ में लौट आई थी । (देखिए - जमाली) ढण वासुदेव श्रीकृष्ण की ढंढणा रानी से उत्पन्न पुत्र, जो अत्यन्त सुकुमार था। अरिहंत अरिष्टनेमि का उपदेश सुनकर ढंढण विरक्त हो गए और मुनिदीक्षा लेकर विचरण करने लगे। पर दीक्षा लेते ही उनके अन्तराय कर्म ऐसे उदित हुए कि उन्हें भिक्षा का सुयोग नहीं मिल पाता था । अन्य मुनियों के साथ भिक्षा के लिए जाते तो उन्हें भी भिक्षा नहीं मिलती । कर्मों की विशेष निर्जरा के लिए ढंढण मुनि ने अभिग्रह कर लिया कि मुझे मेरी लब्धि की भिक्षा मिलेगी तो मैं आहार करूंगा अन्यथा नहीं । प्रतिदिन भिक्षा के लिए जाते पर भिक्षा का सुयोग नहीं मिलता । छह मास बीत गए। देह से कृश गात बन गए पर समता में सुदृढ़ रहे । उसी अवधि मे अरिहंत अरिष्टनेमि के अनुगामी बने ढंढणमुनि द्वारिका नगरी में आए। भिक्षा के समय भिक्षा के लिए प्रस्थित हुए। वासुदेव श्री कृष्ण प्रभु अरिष्टनेमि की सन्निधि में बैठे थे। उन्होंने भगवान से पूछा कि उनके मुनियों में सर्वश्रेष्ठ करणी वाला मुनि कौन है ? भगवान ने ढंढण मुनि का नाम लिया और पूरी बात बताते हुए कहा कि उन्हें दीक्षा लेने के बाद से आज तक आहार का सुयोग नहीं मिला है परन्तु वे अक्लान्त चेता बने पूर्ण समाधिस्थ भाव में तल्लीन रहते हैं। 1 वासुदेव अपने महलों को लौट रहे थे तो मार्ग में उन्होंने हड्डियों का ढांचा शेष रह गए ढंढण मुनि को देखा । उन्होंने हाथी के हौदे से उतरकर पूर्ण भक्तिभाव से मुनि की पर्युपासना की । पास के मकान में ठहरे एक कंदोई ने वासुदेव श्री कृष्ण को यों वन्दन करते देखा तो प्रभावित हुआ और मुनि के सम्मुख पहुंचकर भिक्षा की प्रार्थना की। मुनि ने उससे पूछा कि क्या वह उसके गुरु अथवा पिता को जानता है। कंदोई ने उत्तर में कहा कि वह न उनके गुरु को जानता है, और न पिता को, वह तो मात्र इतना जानता है कि वे एक तपस्वी अणगार हैं । मुनि को लगा कि यह भिक्षा मेरी ही लब्धि की है। पूर्ण भक्ति भाव से कंदोई ने मुनि को मोदक बहराए । भिक्षा के साथ मुनि प्रभु अरिष्टनेमि के पास पहुंचे और उन्हें भिक्षा दिखाई। प्रभु बोले- मुने ! यह भिक्षा तुम्हारे लिए अकल्प्य है ! यह भिक्षा तुम्हें वासुदेव श्रीकृष्ण की लब्धि से उपलब्ध हुई है। भगवान की बात सुनकर मुनि आश्वस्त हो गए। उन्होंने पूछा- प्रभु! मैंने ऐसे क्या कर्म किए हैं, जिनसे मुझे अन्तराय रहती है ? भगवान ने मुनि का पूर्वभव सुनाया - पूर्वजन्म में तुम मगध देश के पूर्वार्ध नगर के पाराशर नामक • जैन चरित्र कोश ••• *** 224
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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