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________________ लक्षपाक तैल, गोशीर्षचंदन और रत्नकम्बल की आवश्यकता होगी। इनमें से लक्षपाक तैल तो मेरे पास है, शेष दो वस्तुएं मेरे पास नहीं हैं। पांचों मित्रों ने कहा, हम यथाशीघ्र इन दोनों वस्तुओं का प्रबन्ध करते हैं, तुम मुनिवर के उपचार की तैयारी करो। राजपुत्र सहित पांचों मित्र बाजार में गए। कई व्यापारियों के पास घूमने के पश्चात् आखिर एक वृद्ध श्रेष्ठी के पास उन्हें ये दोनों वस्तुएं प्राप्त हो गईं। राजपुत्र ने श्रेष्ठी से कहा, महाशय ! हमें रत्नकम्बल और गोशीर्षचंदन चाहिए, इनका जो भी मूल्य होगा, आपको प्राप्त होगा। वृद्ध श्रेष्ठी ने कहा, युवको ! इन दोनों वस्तुओं में प्रत्येक का मूल्य एक लाख स्वर्ण मुद्रा है। राजपुत्र ने कहा, आप मूल्य की चिन्ता मत कीजिए, पूरा मूल्य आपको मिलेगा। युवकों की उत्सुकता देखकर वृद्ध श्रेष्ठी भी उत्सुक बना। उसने पूछा, क्या मैं जान सकता हूँ कि इन मूल्यवान वस्तुओं की जरूरत आपको किसलिए पड़ गई है? राजपुत्र ने श्रेष्ठी को मुनि की रुग्णावस्था की पूरी बात कह सुनाई। पूरी बात सुनकर और युवकों की परोपकार-वृत्ति देखकर श्रेष्ठी गद्गद बन गया। उसने कहा, भद्र युवको ! तुम्हें धन्य है! इस पुण्यमयी कार्य के लिए मैं तुम्हें गोशीर्षचंदन और रत्नकम्बल अवश्य दूंगा, पर मूल्य नहीं लूंगा। प्रसन्नमन से श्रेष्ठी ने दोनों वस्तुएं युवकों को दे दी। पांचों युवक जीवानंद के पास पहुंचे। जीवानंद पूरी साधन सामग्री लेकर पांचों मित्रों सहित जंगल में उस स्थान पर आया, जहां मुनिराज ध्यान-मुद्रा में लीन थे। मित्रों ने मुनिवर के ध्यान पूर्ण होने तक प्रतीक्षा की। ध्यान पूर्ण होने पर जीवानंद ने मुनि से उनके उपचार की आज्ञा प्राप्त की और उपचार प्रारंभ कर दिया। पांचों मित्रों ने जीवानंद का सहयोग किया। कई घण्टों के मर्दनादि उपचार के पश्चात् मुनिवर रोगमुक्त हो गए। ___ उत्कृष्ट भावों से जीवानंद और उसके मित्रों ने मुनिवर की शुश्रूषा और उपचार किया, जिससे उन्होंने महान कर्मों की निर्जरा की और उत्कृष्ट पुण्य का बन्ध किया। जीवन के अन्तिम भाग में जीवानंद और उसके मित्रों ने प्रव्रज्या अंगीकार की और चारित्र की आराधना कर छहों अच्युत देवलोक में इंद्र के सामानिक देव बने। वृद्ध श्रेष्ठी ने भी उत्कृष्ट भावों से दान दिया था, वह भी चारित्र धर्म का पालन कर मोक्ष में गया। यही जीवानंद का जीव भवान्तर में श्री ऋषभदेव प्रभु के रूप में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध हुआ। -त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र / उसह चरियं श्री जीतमल जी महाराज (आचार्य) ___ स्थानकवासी परम्परा के तेजस्वी आचार्यों में आपका नाम ऊपरी पंक्ति में है। आप अपने समय के समर्थ विद्वान, प्रभावी वक्ता, कवि और लेखक मुनीश्वर थे। आचार्यप्रवर श्री जीतमल जी महाराज का जन्म हाड़ोती राज्य के रामपुरा ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्रीमान सुजानमल जी और माता का नाम श्रीमती सुभद्रा देवी था। वि.सं. 1826 में आप का जन्म हुआ। ____ सं. 1834 में अल्पायु में ही आपने अपनी माता के साथ आचार्य श्री सुजानमल जी महाराज के चरणों में आर्हती दीक्षा धारण की। दीक्षा के पश्चात् आपने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं तथा जैन-जैनेतर दर्शनों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। लेखन में आपकी विशेष रुचि थी। कहते हैं कि आप एक ही समय में दोनों हाथों और दोनों पैरों से लिख सकते थे। आपने जीवन काल में तेरह हजार ग्रन्थों की प्रतिलिपियां लिखी थीं। बत्तीसों आगमों की बत्तीस प्रतिलिपियां भी आपने लिखीं। आप कुशल चित्रकार भी थे। आपकी चित्रकला में भी विशेषता थी। उत्कृष्ट कोटि के और बहुत ही सूक्ष्म चित्र बनाने में आप सिद्धहस्त थे। ...जैन चरित्र कोश .. -219 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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