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________________ (ख) जिनदास क्षितिप्रतिष्ठितपुर नगर का रहने वाला एक जिनोपासक श्रावक । जिनवचन और जिन प्रवचन पर उसकी अगाध आस्था थी । व्रत-नियम- सामायिक - पौषध और नवकार - आराधना उसकी दिनचर्या के अनन्य अंग थे। उधर नगरनरेश राजा बल भोगवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था । एक बार कोतवाल ने बाढ़ के जल से भरी नदी से एक बड़े आकार का बीजोरा फल निकाल कर राजा को भेंट किया। राजा ने वह फल खाया तो उसे वह स्वादिष्ट और बलवर्द्धक लगा। राजा ने कोतवाल को आदेश दिया कि वह वैसे फल की खोज करे और प्रतिदिन एक फल लाकर उसे दे । कोतवाल नदी के किनारे चलता चलता एक सघन वन के निकट पहुंचा। उसे वह वृक्ष भी दिखाई पड़ गया, जिस पर बड़े- बड़े बीजोरा फल लगे थे। पर जैसे ही वह उन फलों को तोड़ने के लिए वृक्ष के निकट पहुंचा, ग्वालों ने उसे सावधान किया और बताया कि उन फलों को तोड़ने वाला निश्चित ही मरण को प्राप्त होता है। ग्वालों की बात सुनकर कोतवाल भयभीत हो गया और उसने राजा के पास पहुंचकर वस्तुस्थिति वर्णित की । परन्तु राजा तो जिह्वा का गुलाम था । उसने आदेश दिया, सभी नागरिकों के नाम पर्चियों पर लिखकर एक बड़े घड़े में डाले जाएं, और प्रतिदिन एक पर्ची निकाली जाए। जिस दिन जिसके नाम की पर्ची निकले वही व्यक्ति फल लाए । इस प्रकार प्रतिदिन एक व्यक्ति की बलि ली जाने लगी। राजा की रसलोलुपता पर नागरिक संत्रस्त हो गए थे। उसी क्रम में एक दिन जिनदास के नाम की पर्ची निकली। जिनदास ने अपनी दैनिक क्रियाएं कीं । सामायिक की आराधना की। सागारी अनशन किया और नवकार मंत्र के उद्घोष के साथ वन में प्रवेश किया। वह वन वाणव्यंतर देव से अधिष्ठित था। नवकार मंत्र का उद्घोष सुनकर व्यंतर देव सशंकित हो गया। वह चिन्तनशील बना । अवधिज्ञान के उपयोग से उसने जान लिया कि वह पूर्वजन्म में एक संत था और संयम की विराधना के कारण वाणव्यंतर बना है। उसे अपने पतन पर पश्चात्ताप हुआ। उसे सम्यक्त्व- रत्न की प्राप्ति हो गई। इसका निमित्त उसने जिनदास को ही माना। उसने जिनदास को गुरु पद दिया और कहा, प्रतिदिन एक बीजोराफल वह उसके पास पहुंचा दिया करेगा। जिनदास प्रतिदिन बीजोराफल राजा की सेवा में प्रस्तुत करने लगा। जिनदास के धर्मप्रभाव के कारण नगर जन अभय को प्राप्त हो गए। - वृन्दारुवृत्ति / जैन कथा रत्न कोष / नेम वाणी / कविवर्य नेमिचंद्र (ग) जिनदास पाटलिपुत्र नगर निवासी बारहव्रती श्रावक, अनन्य श्रमणोपासक और दृढ़धर्मी पुरुषरत्न । एक बार वह अनेक व्यापारियों के साथ समुद्रमार्ग से व्यापार के लिए सुवर्णद्वीप जा रहा था। उसके साथी व्यापारी भी श्रमणोपासक थे। सभी यान के कक्ष में बैठे धर्मचर्चा में लीन थे। अचानक कालिक नामक दैत्य विशाल रूप बनाकर आकाश पर महामेघ की भांति प्रकट हुआ । उसने जिनदास को सम्बोधित कर सभी व्यापारियों को चेतावनी दी कि वे पाखण्डरूप जिनधर्म की चर्चा बन्द करें ! जिनधर्म की निन्दना करें, जिनधर्म की आराधना न करने का संकल्प करें! यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो वह उन सबको उनके धन-माल सहित समुद्र में डुबो देगा ! सभी व्यापारी भय से कांप उठे । पर जिनदास के एक रोम में भी भय का स्पंदन नहीं हुआ। दैत्य पुनः अपनी चेतावनी को दोहराया। इस पर सभी व्यापारियों ने जिनदास से प्रार्थना की, श्रेष्ठिवर्य ! यदि प्राण और धन की रक्षा होती है तो जिन धर्म की निन्दना हमें कर देनी चाहिए। प्राण बच गए तो घर लौटकर • जैन चरित्र कोश ••• ... 210
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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