SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनदत्त-पुत्र (सागरदत्त-पुत्र) चम्पानगरी में दो मित्र रहते थे। उनमें से एक जिनदत्त सेठ का पुत्र था और दूसरा सागरदत्त सेठ का। एकदा दोनों मित्र नगरी के बाहर स्थित सुभूमिभाग नामक उद्यान में आमोद-प्रमोद के लिए गए। वहां एक झाड़ी में एक मोरनी ने सुंदर अंडे दिए थे। अण्डों को देखकर दोनों मित्र प्रसन्न हुए। दोनों एक-एक अण्डा अपने-अपने घर ले गए और मुर्गियों के स्थान पर सुरक्षित रख दिया, जिससे कि मुर्गियां उन्हें सेकर उनसे मयूर-शावक उत्पन्न करें। सागरदत्त-पुत्र शंकालु हृदय का युवक था। वह पुनः पुनः अण्डे को स्पर्श कर और हिला कर देखता। ऐसा करने से कुछ ही दिनों में अण्डा सड़ गया। उसे मयूर-शावक तो क्या मिलना था, पंचेंद्रिय जीव की हत्या का भार भी उसके सिर आ गया। उधर जिनदत्त-पुत्र को किसी भी प्रकार का संदेह नहीं था। उसे सुदृढ़ विश्वास था कि उसे एक दिन अवश्य ही मयूर-शावक प्राप्त होगा। हुआ भी वैसा ही, काल के पकने पर अण्डे से मयूर-शावक निकला जिसे देखकर जिनदत्त-पुत्र अत्यन्त हर्षित हुआ। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र की इस कथा का कथ्य है कि संदेहशील व्यक्ति इच्छित लाभ से वंचित रह जाता है और श्रद्धाशील इच्छित लाभ को अवश्यमेव प्राप्त करता है। -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, अध्ययन 3 जिनदत्त सूरि (आचार्य) खरतरगच्छ के संस्थापक और बड़े दादा के सम्माननीय नाम से सुख्यात श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के एक आचार्य। ___आचार्य जिनदत्त सूरि का जन्म गुजरात प्रान्त के धवलक नगर में वी.नि. 1602 में हुआ। वे वैश्य वंशज थे। उनकी माता का नाम वाहड़ा देवी और पिता का नाम वाच्छिग था। यह जैन धर्म के प्रति निष्ठा रखने वाला परिवार था। वाच्छिग गुजरात नरेश के दरबार में अमात्य पद पर प्रतिष्ठित थे। जिनदत्त को माता-पिता से धार्मिक संस्कार विरासत में प्राप्त हुए थे। ___बाल्यावस्था में ही साध्वियों की प्रेरणा से जिनदत्त का मन वैराग्य रंग से रंग गया। उन्होंने उपाध्याय धर्म देव से मात्र नौ वर्ष की अवस्था में आर्हती प्रव्रज्या अंगीकार की। अध्ययन में समर्पित हुए। आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। जैनेतर दर्शनों के भी पारगामी पण्डित बने। मंत्र विद्या का भी पारायण किया। वे संघ के मनीषी मुनियों में गिने जाने लगे। शास्त्रार्थ के अनेक प्रसंगों पर उन्होंने विजयश्री प्राप्त की। वी. नि. 1639 में उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। बाद में वे युगप्रधान आचार्य बने। आचार्य जिनदत्त सूरि के युग में चैत्यवासियों ने अपना प्रभाव पर्याप्त विस्तृत किया हुआ था। आचार्य जिनदत्त सूरि सुविहित मार्गी थे। उन्होंने चैत्यवासी श्रमणों को कई बार शास्त्रार्थ में परास्त कर सुविहित मार्ग का गौरव बढ़ाया। उन्होंने अपने जीवन काल में सहस्राधिक मुमुक्षुओं को जिन दीक्षा दी, जिससे पर्याप्त रूप में जिन धर्म की प्रभावना हुई। आचार्य जिनदत्त सूरि ने कई अमूल्य ग्रन्थों की रचना भी की। वी.नि. 1681 में आचार्य जिनदत्त सूरि का स्वर्गवास अजमेर में हुआ। उनके नाम से बनी दादावाड़ी वहां आज भी मौजूद है। अन्य अनेक नगरों और प्रान्तों में भी उनके नाम से दादावाड़ियां हैं। ... 208 .. 1. जैन चरित्र कोश ....
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy