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________________ जिनचंद्र श्रावक सुप्रतिष्ठित नामक नगर का रहने वाला एक दृढ़धर्मी श्रावक । उसकी पत्नी का नाम सुंदरी था। जिनचंद्र समृद्ध था पर धर्मानुष्ठान और धर्माचरण को ही वह अपनी वास्तविक समृद्धि मानता था। मास में चार पौषध करना उसका नियम था। उसकी धर्मदृढ़ता की ख्याति भूलोक पर तो फैली ही, देवलोक में भी फैल गई। एक बार देवराज इन्द्र ने उसकी धर्मदृढ़ता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। एक देव जिनचंद्र की दृढ़ता की परीक्षा लेने पृथ्वी पर आया। जहां पर जिनचंद्र पौषध की आराधना कर रहा था, वहां उपस्थित होकर देव ने कई प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित किए। जिनचंद्र को कई प्रकार से विभ्रमित करने के प्रयास किए पर वह उसकी समाधि को तोड़ने में सफल नहीं हो सका। अन्ततः देव असफल हो गया। वह जिनचंद्र के चरणों पर झुक गया और उसने क्षमा प्रार्थना की तथा निवेदन किया. महानभाव! देवदर्शन कभी मिथ्या नहीं जाते. आप जो चाहें मझसे मांग सकते हैं! जिनचंद्र ने कहा. मैं अपने आप में संतष्ट और प्रसन्न हं. मझे कछ नहीं चाहिए। पर देव ने पन:-पनः निवेदन दि या और कछ मांगने के लिए जिनचंद्र को बाध्य किया। आखिर जिनचंद्र ने कहा, कछ ऐसा करो कि जनता में जिनधर्म के प्रति श्रद्धा जागे! देव जिनचंद्र की मांग सुन गद्गद हो गया। उसने जगह-जगह तीर्थंकरों की अतिशय महिमा को व्यक्त करने वाली घटनाओं का प्रदर्शन किया। लोगों में रोमांच जगा और जिनधर्म की ओर नके हृदयों में उत्पन्न हुआ। जिनधर्म की महती प्रभावना कर देव अपने निवास पर चला गया। जिनचंद्र भी श्रावक व्रतों का विशुद्ध आराधन कर देवलोक में गया। एक भव करके वह सिद्ध-बुद्ध होगा। जिनचंद्र सूरि (आचार्य) आगमिक गच्छ के एक प्रभावशाली और वादनिपुण आचार्य। उनकी वाणी में अद्भुत ओज था। जब वे वीर रस पर व्याख्यान देते तो श्रोता शौर्य से भर जाते, करुण रस पर बोलते तो श्रोता अश्रु बरसाने लगते और हास्य रस पर बोलते तो श्रोता हँसी से लोट-पोट हो जाते। उनके इसी महान गुण के कारण उन्हें 'नव रसावतार तरंगिणी' का विरुद प्राप्त था। ___ एक बार आचार्य जिनचंद्र सूरि लोलियाणक नगर में विराजमान थे। वहां का राजा आचार्य श्री का परम भक्त था। एक बार नगर में दामोदर नामक एक पण्डित आठ याज्ञिकों के साथ आया। उसने एक यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ में बलि के लिए 32 बकरे लाए गए। इससे अहिंसक जैन समाज में चिन्ता की लहर दौड़ गई। आचार्य श्री तक सूचना पहुंची। आचार्य श्री ने याज्ञिक से कहलवाया कि वह यज्ञ में हिंसा न करे। परन्तु याज्ञिक दामोदर ने आचार्य श्री की बात अस्वीकार कर दी। आचार्य श्री ने राजा से इस सम्बन्ध में कहा और राजाज्ञा प्रसृत कराई कि यज्ञ में हिंसा के समर्थन और निषेध पर शास्त्रार्थ हो । जय-पराजय के आधार पर ही हिंसा और अहिंसा का विधान हो। __ आखिर जिनचंद्र सूरि और ब्राह्मण विद्वान दामोदर के मध्य शास्त्रार्थ हुआ। यह शास्त्रार्थ अठारह दिनों तक चला। राजा और प्रजा ने इस शास्त्रार्थ में भारी रुचि ली। अठारहवें दिन आचार्य जिनचंद्र सूरि के अकाट्य तर्कों के समक्ष दामोदर निरुत्तर हो गया। हिंसा की पराजय और अहिंसा की विजय हुई। 32 बकरों को प्राणदान प्राप्त हुआ। आचार्य जिनचंद्र आगमिक गच्छ के पांचवें प्रभावक आचार्य थे। उनके शासनकाल में आगमिक गच्छ ने काफी विकास किया। ... जैन चरित्र कोश ... - 205 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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