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________________ ने अभूतपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया और नन्द सेना को धराशायी कर दिया। इस प्रकार चंद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने अपने प्रबल पराक्रम के बल पर भारतवर्ष के सभी साम्राज्यों को अपने अधीन किया। ई.पू. 305 में यूनान नरेश सेल्युकस ने भारत पर आक्रमण किया। सम्राट चंद्रगुप्त ने सेल्युकस को करारी मात दी और यूनानी दासता में भारतवर्ष के काबुल और कान्धार तक - के प्रदेशों को मुक्त कराकर वहां अपना साम्राज्य स्थापित किया। ज्ञात इतिहास में चंद्रगुप्त मौर्य आज तक के सबसे बड़े सम्राट् हुए। बाद में अंग्रेज और मुस्लिम शासक भी एकरूपता से समग्र भारत पर वैसा सफल शासन नहीं कर पाए, जैसा चंद्रगुप्त ने किया। ऐतिहासिक कड़ियों के जोड़ से यह तथ्य सुस्पष्ट हो जाता है कि चंद्रगुप्त एक जैन राजा थे। वे सर्वधर्म समन्वय में विश्वास रखते थे, पर व्यक्तिगत रूप से वे जैन धर्म को अपना धर्म मानते थे। जन्म से ही उन्हें जैन धर्म का वातावरण प्राप्त हुआ था। उनके गुरु चाणक्य भी जैन थे। ____ आचार्य भद्रबाहु और महाराज चंद्रगुप्त की कई घटनाएं प्राप्त होती हैं। एकदा चंद्रगुप्त ने 16 स्वप्न देखे, जिनका परिणामात्मक विश्लेषण आचार्य भद्रबाहु ने किया। उल्लेखों से यह भी प्रमाणित होता है कि 25 वर्ष शासन करने के पश्चात् चंद्रगुप्त ने अपने पुत्र बिन्दुसार को राज्यभार प्रदान कर आर्हती प्रव्रज्या ग्रहण की थी। श्रवणबेलगोल पर तपस्या साधना में अपने अन्तिम जीवन को समर्पित कर श्रमण चंद्रगुप्त ने संलेखनापूर्वक देहोत्सर्ग किया। चंद्रच्छाया प्रभु मल्लि के समय का चम्पा नगरी का एक राजा, प्रभु मल्लि के पूर्वभव का मित्र । अर्हन्नक चम्पा नगरी का रहने वाला एक दृढ़धर्मी श्रावक था। वह समुद्र मार्ग से दूर देशों की यात्राएं कर व्यापार करता था। एक बार जब अर्हन्नक यात्रा से लौटा तो राजा को भेंट देने पहुंचा। राजा ने उससे पूछा, तुम दूर देशों में घूमते हो, क्या कोई अद्भुत वस्तु देखी ? अर्हन्नक ने कहा, विदेहराज की पुत्री मल्लि इस ब्रह्माण्ड की अद्भुत कन्या है। रूप-गुण का वैसा संगम त्रिकाल में भूतो न भविष्यति। अर्हन्नक की बात सुनकर राजा मल्लि के प्रति आकर्षित हो गया और उसने महाराज कुंभ के पास दूत भेजकर मल्लि का हाथ अपने लिए मांगा। युद्ध तक की स्थिति बनी। पर मल्लि की युक्ति से चंद्रच्छाया जागृत और दीक्षित हो सिद्ध हुआ। चंद्रप्रभ (तीर्थंकर) ये वर्तमान चौबीसी के आठवें तीर्थंकर थे। इनका जन्म चंद्रानना नगरी के स्वामी महाराज महासेन की पट्टरानी लक्ष्मणा के गर्भ से पौषवदी द्वादशी के दिन हुआ था। गर्भकाल में महारानी को चंद्रपान का दोहद उत्पन्न हुआ था। उसी कारण पुत्र का नाम चंद्रप्रभ रखा गया। यौवनवय में चंद्रप्रभ का अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह किया गया। पिता की मृत्यु के पश्चात् वे सिंहासन पर बैठे और लम्बे समय तक शासन करते रहे। उचित समय पर लोकान्तिक देवों की प्रार्थना सुन उन्होंने वर्षीदान दिया और गृहत्याग कर अनगार बने। मात्र तीन महीने की साधना के पश्चात् उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और नर से नारायण बन गए। तीर्थ की संस्थापना कर तीर्थंकर कहलाए। दत्त प्रमुख उनके 93 गणधर थे। दो भव पूर्व महाराज पद्म के भव में उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया था। मध्य में वैजयन्त नामक देवलोक का एक भव कर वे चंद्रप्रभ के भव में आए और सिद्धत्व को प्राप्त हुए। -त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र 3/5 ... 164 ... ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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