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________________ उसकी उसी दशा को देखकर पण्डित ने उसके पुत्र से क्षमापना कर विदा ले ली। कलहपूर्ण और अशांत-अनवस्थितचित्त रहकर ही उसने आयु पूर्ण की और अन्धकारपूर्ण जीवन-मृत्यु के प्रवाह में खो गई। ___-उपदेश रत्नाकर / जैन कथा रत्नकोष, भाग 6 गोयमा ___ भगवान महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम का आगमीय भाषा में व्यवहृत हुआ नाम। विशेष परिचय के लिए (दखिए-इन्द्रभूति-गणधर) गोविन्द राजा राष्ट्रकूट नगर के राजा। गोविन्द राजा जैन धर्म के प्रति अनन्य आस्थाशील थे। वी.नि. की चौदहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध उनका शासन काल अनुमानित है। गोविन्दाचार्य आचार्य परम्परा के एक महान अनुयोगधर आचार्य। नन्दी स्थविरावली में उनका गुणार्चन निम्नोक्त शब्दावली में हुआ है गोविंदाणं पि नमो, अणुओगे विउलधारणिंदाणं। णिच्चं खंति-दयाणं, परूवणे दुल्लभिंदाणं ।। अर्थात् अनुयोग सम्बन्धी विपुल धारणा वालों में तथा दया-क्षमा आदि की प्ररूपणा में रुद्र के लिए भी दुर्लभ ऐसे गुणसम्पन्न आचार्य गोविन्द को मैं नमस्कार करता हूँ। नन्दी स्थविरावली के अनुसार गोविन्दाचार्य नागार्जुनाचार्य के उत्तरवर्ती आचार्य थे। उनका श्रुतज्ञान विशाल था और दया-क्षमा आदि गुणों की वे अक्षय निधि थे। ___-नन्दी स्थविरावली गोशालक राजगृह के निकटस्थ श्रवण ग्राम के रहने वाले मंखली और सुभद्रा का पुत्र, जो गोशाला में पैदा होने के कारण गोशालक कहलाया। बड़ा होने पर अपने पिता के समान ही वह भी चित्रपट हाथ में रखकर भिक्षावृत्ति करता और आजीविका चलाता था। एक बार जब भगवान महावीर राजगृह नगर में एक बुनकरशाला में साधना काल का द्वितीय वर्षावास बिता रहे थे, संयोग से गोशालक भी उसी बुनकरशाला में आकर ठहर गया। मासोपवासी भगवान ने विजय सेठ के घर से भिक्षा लेकर पारणा किया। सुपात्रदान की महिमा गाते हुए देवों ने प्रभूत धन की वर्षा की। यह घटना गोशालक ने भी देखी और सुनी। वह भगवान से बहुत प्रभावित हुआ। उसे विश्वास हो गया कि भगवान का शिष्य बन जाने पर उसकी आजीविका की कठिनाई दूर हो जाएगी। उसने भगवान से प्रार्थना की कि वे उसे शिष्य रूप में स्वीकार कर लें। उसकी प्रार्थना पर भगवान मौन रहे। भगवान के दूसरे, तीसरे और चौथे मासोपवास के पारणे पर भी धन की वर्षा हुई। गोशालक भी निरन्तर भगवान से प्रार्थना करता रहा कि वे उसे शिष्य रूप में स्वीकार कर लें। आखिर भगवान ने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। गोशालक भगवान के साथ-साथ घूमने लगा, पर उसका लक्ष्य आत्मसाधना न था, वह तो भगवान से कुछ चमत्कारी विद्याएं सीखना चाहता था। वह यथावसर भगवान के ज्ञान की परीक्षा लेने से भी नहीं चूकता था। कई ऐसे प्रसंग आए जब उसने भगवान के कथन को मिथ्या सिद्ध करने के प्रयास किए, पर हर बार भगवान का वचन सत्य सिद्ध हुआ। ...जैन चरित्र कोश... - 151 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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