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________________ (ख) क्षुल्लक मुनि एक युवा और तेजस्वी जैन श्रमण। उसकी तेजस्विता लोक में उस क्षण प्रकट हुई, जब चम्पानगरी के राजा सिंहसेन के आदेश पर उसके बुद्धि सम्पन्न और धर्मज्ञ महामंत्री रोहगुप्त ने राजसभा में एक धर्मसभा का आयोजन किया और देश-देशान्तर के धर्माचार्यों को उस धर्मसभा में आमंत्रित किया। राजकीय घोषणा में कहा गया कि सभी धर्माचार्यों के समक्ष एक गाथा-पद रखा जाएगा, जो भी धर्माचार्य उस पद को उत्कृष्ट अर्थ से सज्जित गाथा में संगुंफित करेगा, उसे राजगुरु के पद से अलंकृत किया जाएगा। वह पद था-सकुंडलं वा वयणं न वेत्ति। सभी धर्माचार्यों ने उक्त पद की अपने-अपने ढंग से संपूर्ति की, पर कोई भी नारी के शरीर की महिमा और रूपासक्ति से ऊपर नहीं उठ पाया। राजा को किसी भी संपूर्ति से संतोष नहीं हुआ। राजा ने पूछा, सभी मतों के धर्माचार्य उपस्थित हैं पर जैन धर्म का प्रतिनिधि कोई मुनि उपस्थित नहीं है। जैन मुनि को भी आमंत्रित किया जाए। मंत्री ने कहा, महाराज! जैन मुनि किसी के आदेश अथवा निमंत्रण में नहीं बंधते हैं। फिर भी हम कोशिश करेंगे कि कोई जैन श्रमण स्वभावतः इधर आया हो तो उसे आमंत्रित करें। सहसा उक्त क्षुल्लक मुनि राजसभा के निकट से गुजर रहे थे। मंत्री के विशेष आग्रह पर क्षुल्लक मुनि धर्मसभा में आए और उन्होंने गाथापद को वैराग्यमयी निबंध में बांधकर पूरी धर्मसभा और राज्य को चकित कर दिया। साथ ही क्षुल्लक मुनि ने वीतरागता को धर्म का मूल सिद्ध करते हुए वीतराग के धर्म की महिमा का सुन्दर प्रतिपादन किया। राजा ने क्षुल्लक मुनि को राजगुरु के पद के लिए आमंत्रित किया। पर राजा के प्रस्ताव को अनासक्त चित्त से अस्वीकार कर यह कहते हुए क्षुल्लक मुनि विदा हो गए कि वीतराग प्रभु के उपासक निर्ग्रन्थ के लिए आत्मजय का पद ही परम पद है। क्षेमक गाथापति काकंदी नगरी निवासी एक धनाढ्य गाथापति। एक बार भगवान महावीर काकंदी नगरी में पधारे। भगवान का उपदेश सुनकर क्षेमक विरक्त हो गया और प्रव्रजित बनकर तथा सोलह वर्षों तक उत्कृष्ट संयम का पालन कर विपुलगिरि पर सिद्ध हुआ। -अन्तगड सूत्र वर्ग 6, अध्ययन 5 ... जैन चरित्र कोश .. -- 125 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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