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________________ करेणुदत्त हस्तिनापुर का राजा । (देखिए-ब्रह्मराजा) कर्ण ___एक शूरवीर और दानवीर राजा। अंग देश का राजा बनने से पूर्व कर्ण का जीवन संघर्षों से भरा जीवन रहा। पाण्डु और कुन्ती के गन्धर्व विवाह के परिणामस्वरूप कर्ण का जन्म हुआ। लोकापवाद से बचने के लिए कुन्ती ने नवजात पुत्र को पेटिका में रखकर गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया। विश्वकर्मा नामक सारथि ने उस पेटिका को निकाला। उसमें तेजस्वी नवजात शिशु को देखकर सारथि अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वह निःसंतान था। उसने अपनी पत्नी राधा को वह नवजात शिशु लाकर दे दिया। शिशु के कानों में कुण्डलाकृति होने से उसे कर्ण नाम दिया गया। ___ योग्य वय में कर्ण ने आचार्य परशुराम के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण की। वह धनुर्विद्या में विशेष निपुण बना। बाद में दुर्योधन के साथ उसके मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो गए। कौरव-पाण्डव कुमारों के कला प्रदर्शन समारोह में अपनी कला के प्रदर्शन के लिए कर्ण भी उपस्थित हुआ। प्रतियोगिता के लिए उसने अर्जुन को ललकारा। उस समय कुलगुरु कृपाचार्य ने यह कहकर कर्ण को हतोत्साहित करना चाहा कि यह राजाओं और राजकुमारों के लिए कला-प्रदर्शन मण्डप है। साधारण व्यक्ति के लिए यहां कला प्रदर्शन की अनुमति नहीं है। उस समय कर्ण को अर्जुन का प्रतिद्वन्द्वी मानकर दुर्योधन ने उसे अंग देश का राजा बना दिया और कहा, कर्ण अब राजा बन गया है, इसलिए उसे कला प्रदर्शन का अब पूरा अधिकार है। ___ इस घटना से कर्ण दुर्योधन का ऋणी बन गया और आजीवन उसका उपकार मानता रहा। मैत्री धर्म को निभाने के लिए कर्ण ने दुर्योधन को अन्याय पथ पर मानते हुए भी उसका साथ दिया। आखिर महाभारत के युद्ध में द्रोण के निधन के बाद कर्ण ने कौरव सेना का सेनापति पद प्राप्त किया और अपने युद्ध कौशल से सभी को चमत्कृत कर दिया। अन्ततः अर्जुन से युद्ध करते हुए कर्ण वीरगति को प्राप्त हुआ। युद्धवीर के अतिरिक्त कर्ण दानवीर भी था। उसकी दानवीरता के कई चमत्कृत कर देने वाले प्रसंग जैन और जैनेतर साहित्य में प्राप्त होते हैं। कहते हैं कि एक बार अंग देश में अतिवृष्टि के कारण लोगों को शुष्क लकड़ी का प्राप्त होना दुर्लभ हो गया। शुष्क लकड़ी के अभाव में लोग भोजन कैसे पकाते? प्रजा कर्ण के पास पहुंची और अपनी समस्या उसके समक्ष रखी। कर्ण का अपना महल चन्दन की लकड़ियों से निर्मित था। प्रजा को शुष्क लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए कर्ण ने अपना वह महल तुड़वा डाला और प्रजा को यथेच्छ शुष्क चन्दन की लकड़ी प्रदान की। कर्ण कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने के समय कुन्ती का हृदय इस बात को स्वीकार नहीं कर सका कि उस के अपने ही अंगजात एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ें। कुन्ती कर्ण के शिविर में गई। उसने आद्योपान्त घटनाक्रम कह कर कर्ण को कण्ठ से लगा लिया। अपना परिचय पाकर कर्ण भी गद्गद बन गया। उसने कुन्ती से कहा, मां ! मेरे लिए आदेश करो कि मैं आपकी क्या सेवा करूं ! कुन्ती ने कहा, पुत्र ! मैं अपने पांचों पुत्रों के जीवन की भिक्षा मांगती हूँ। कर्ण ने 'न' कहना सीखा ही नहीं था। उसने कुन्ती को वचन दिया कि पांच पाण्डवों की माता तुम सदैव बनी रहोगी। यदि युद्ध में मैंने अर्जुन को धराशायी कर दिया तो मैं तुम्हारे पास चला आऊंगा और यदि अर्जुन ने मुझे मार गिराया तो वह तुम्हारे पास रहेगा ही। शेष चार सहोदरों पर मैं प्राणघातक वार नहीं करूंगा, यह मेरा वचन है। ...90 .. ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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