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________________ आत्मविभोर बनते चले गए। दर्शक भूल गए कि वे नाटक देख रहे हैं अथवा वास्तविक भरत महाराज उनके समक्ष प्रस्तत हैं। साथ ही स्वयं आषाढ़ भी इस अभिनय में इतना तल्लीन बन गए कि उन्हें भी अपने आषाढ़ होने की स्मृति न रही। शीशमहल मे कैवल्य प्राप्ति के मंचन के क्षण में आषाढ भरत जी की ही भावधारा का स्पर्श कर रहे थे। और उस अभिनय को भाव तल पर आषाढ़ इतनी तन्मयता से जी गए कि उन्हें केवलज्ञान हो गया। फिर तो पूरी तस्वीर ही बदल गई। पंचमुष्टि हुँचन करके आषाढ़ ने उसी क्षण मुनि वेश धारण कर लिया। उन्होंने एकत्रित जनसमूह को धर्मोपदेश दिया। पांच सौ भव्यात्माएं प्रबुद्ध बनीं। उन्हें दीक्षित कर आषाढ़ गुरु की सन्निधि में पहुंचे। अपने शिष्य को केवली अवस्था में देखकर गुरु को जो सुख मिला वह अकथ्य है। आषाढ़ उत्थान, पतन और पुनरुत्थान को जीकर सिद्ध हुए। -उपदेश प्रासाद भाग 4 आषाढ़सेन (राजा) ई. पूर्व प्रथम सदी अथवा उसके आस-पास के समय का एक जैन राजा जिसकी राजधानी अहिच्छत्रा नगरी थी। उसके जीवन पर जैन धर्म का बहुत प्रभाव था। शेष विवरण अप्राप्त। "आषाढ़ाचार्य ___ एक जैन आचार्य। (देखिए-आषाढ़ाचार्य के शिष्य) आषाढ़ाचार्य के शिष्य महावीर निर्वाण के 214 वर्ष बाद आचार्य आषाढ़ श्वेताम्बिका नगरी के पोलास उद्यान में अपने शिष्यों को योगाभ्यास का शिक्षण दे रहे थे। एक रात्रि में अकस्मात् हृदयशूल से आचार्य श्री का निधन हो गया। वे देवलोक में उत्पन्न हुए। उन्होंने उपयोग लगाया और जाना कि उनके शिष्यों का शिक्षण अधूरा है। उनका शिक्षण पूर्ण हो, इस विचार से वे अपने ही मृत शरीर में प्रविष्ट हो गए और क्रमशः शिष्यों को योगाभ्यास का शिक्षण देने लगे। शिक्षा पूरी होने पर आचार्य श्री ने सत्य का उद्घाटन किया और अव्रती होकर व्रतियों से वंदनादि सम्मान लेने के लिए क्षमापना कर देवलोक में चले गए। इससे शिष्यों के मन में यह शंका हो गई कि कौन जाने मुनिसंघ में कौन मुनि है और कौन देव है। वे अव्यक्तवाद की प्ररूपणा करने लगे। स्थविर मुनियों ने उनको समझाया, पर वे अपने हठाग्रह पर अडिग रहे। एक बार भ्रमण करते हुए राजगृह नगर में आए। वहां के श्रमणोपासक राजा बलभद्र ने उनको प्रतिबोध देने की दृष्टि से गिरफ्तार कर लिया और सैनिकों को आदेश दिया कि इन्हें कोड़े लगाए जाएं। राजा के विपरीत व्यवहार और आदेश को सुन संत सहम गए और बोले, आप श्रमणोपासक होकर निरपराध श्रमणों के साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, क्या यह शोभनीय है? राजा ने कहा, महाराज! मैं आपके ही वाद का समर्थन कर रहा हूं। कौन जाने मैं श्रमणोपासक हूं या नहीं, फिर यह भी कैसे माना जाए कि आप श्रमण हैं अथवा नहीं। राजा की युक्ति सफल रही। मुनियों को अपनी भूल का परिबोध हो गया। उन्होंने जिन-संघ में पुनः लौटने का संकल्प कर लिया। उनके सम्यक्-संकल्प को जानकर राजा ने अपने असम्यक्-उपाय के लिए क्षमा याचना की। आसकरण जी (आचार्य) ___ आचार्य श्री जयमल्ल जी म. की परम्परा के एक प्रभावशाली और कवि हृदय आचार्य। ... जैन चरित्र कोश - 0.59 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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