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________________ अप्ततस्वस० अप्राणिषु अतन्तस्वसनप्तनेष्टत्वष्टचतहोतृपोतृप्रशास्तृणाम् - अप्रथमायाम् -VI. I. 131 VI. iv. 11 (मन्त्र विषय में) प्रथमा से भिन्न विभक्तियों के परे रहने अप.तून.तच्यत्ययान्त,स्वस,नप्त,नेष्ट, त्वष्ट,क्षत,होत, नत्वदायत,हात, पर (ओषधि शब्द को भी दीर्घ हो जाता है)। पोत, प्रशास्तृ - इन अङ्गों की (उपधा को दीर्घ होता है, अप्रथमासमानाधिकरणे -III. 1. 124 सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान परे रहते)। ...अप्यो:-III. I. 141 (धातु से लट् के स्थान में शतृ तथा शानच आदेश होते. देखें-उताप्योः III. M. 141 है),यदि अप्रथमान्त के साथ उस लट् का सामानाधिकरण्य हो तो। ...अप्यो: -III. I. 152 देखें- साप्योः III. III. 152 अप्रधान.. -VI. I. 189 ...अप्रख्यानात् -I. 1.54 देखें-अप्रधानकनीयसी VI. 1. 189 देखें - लुब्योगाप्रख्यानात् I. 1.54 अप्रधानकनीयसी-VI. I. 189 . अप्रगृहास्य-VIII. 1. 107 (अनु अपसर्ग से उत्तर) अप्रधानवाची अर्थात् क्रियादि . (दूर से बुलाने के विषय से भिन्न विषय में)प्रगृह्यसञक में जिसे मुख्य रूप से नहीं कहा जा रहा हो; ऐसे उत्तरपद से भिन्न (एच के पूर्वाई भाग) को (प्लुत करने के प्रसंग में को तथा कनीयस शब्द को (अन्तोदात्त होता है)। आकारादेश होता है,तथा उत्तरदाले भाग को इकार,उकार अप्रधाने -II. 1. 19 आदेश होते है)। (सह अर्थ से युक्त) अप्रधान अर्थात्-दोनों में से जिसका . अप्रगृह्यस्य -VIII. iv.56 . क्रियादि के साथ सम्बन्ध साक्षात् शब्द द्वारा नहीं कहा. : (अवसान में वर्तमान) प्रगृह्यसञक से भिन्न (अण को विकल्प से अनुनासिक आदेश होता है)। गया है, उसमें (तृतीया विभक्ति होती है)। अप्रतिषिद्धम् -VIII. 1. 44 ...अप्रयोगे -II.1.56 क्रिया के प्रश्न में वर्तमान किम शब्द से यक्त उपसर्ग देखें-सामान्याप्रयोगे II.1.56 से रहित तथा) प्रतिषेधरहित (तिङन्त) को (अनुदात्त नहीं अप्रशान् -VIII. 1.7 होता)। प्रशान् को छोड़कर (नकारान्त पदकों अम्परक छव अप्रते: -II. iii.43 प्रत्याहार परे रहते रु होता है.संहिता में)। प्रति का प्रयोग न होने पर (साधु और निपुण शब्द के अप्राणिनाम् -II. iv.6 योग में सप्तमी विभक्ति होती है. अर्चा गम्यमान होने प्राणिरहित (जातिवाची) शब्दों का (जो द्वन्द्व, उसे पर)। अप्रते: -VIII. iii. 66 एकवद्भाव होता है)। प्रति से भिन्न (उपसर्गस्थ निमित्त) से उत्तर (षदल धातु के अप्राणिषष्ठ्या -VI. 1. 134 सकार को मूर्धन्य आदेश होता है, अडु तथा अभ्यास के प्राणिभिन्न षष्ठ्यन्त शब्द से उत्तर (तत्पुरुष समास में व्यवधान में भी)। उत्तरपद चूर्णादि शब्दों को आधुदात्त होता है)। अप्रत्ययः -I.i. 68 प्रत्यय को छोड़कर (अण् एवं उदित् वर्ण अपने स्वरूप अप्राणिषु - II. ii.7 तथा अपने सवर्ण के ग्राहक होते हैं)। (मन् धातु के) प्राणिवर्जित (कर्म में अनादर गम्यमान अप्रत्ययः -I. 1.40 होने पर चतुर्थी विभक्ति होती है)। (अर्थवान् शब्द प्रातिपदिक-संज्ञक होते हैं; धातु),प्रत्यय अप्राणिषु-v. iv.97 और प्रत्ययान्त को छोड़कर। (उपमानवाची श्वन शब्द) प्राणिविशेष का वाचक न हो अप्रत्ययस्य-VIII. HI. 41 तो (तदन्त तत्पुरुष से समासान्त टच प्रत्यय होता है)। (इकार और उकार उपधा वाले) प्रत्ययभिन्न समुदाय के अप्राणिप-VI. iii.76 (विसर्जनीय को भी षकार आदेश होता है। कवर्ग.पवर्ग परे रहते)।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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