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________________ सम्पचकर्तरि सम्पकर्तरि -V. iv. 50 (कृ, भू तथा अस् धातु के योग में अभूततद्भाव गम्यमान होने पर) सम् पूर्वक पद् धातु के कर्ता में (वर्तमान प्रातिपदिक से च्चि प्रत्यय होता है)। सम्परिपूर्वात् - V. 1.91 (द्वितीयासमर्थ) सम् तथा परि पूर्व वाले (वत्सरशब्दान्त प्रातिपदिकसे 'सत्कारपूर्वक व्यापार', 'खरीदा हुआ', 'हो 'चुका' तथा 'होने वाला' इन अर्थों में ख तथा छ प्रत्यय होते हैं)। सम्परिभ्याम् - VI. 1. 131 (भूषण अर्थ में) सम् तथा परि उपसर्ग से उत्तर (कृ धातु परे रहते, कार से पूर्व सुट् का आगम होता है, संहिता के विषय में)। सम्पादि... - VI. ii. 155 देखें- संपाधार्ह VI. I. 155 सम्पादिनि - V. 1. 98 536 (तृतीयासमर्थ प्रातिपदिक से) 'शोभित किया' अर्थ में (यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है)। सम्पाद्यर्हहितामर्था: - VI. II. 155 (गुण के प्रतिषेध अर्थ में वर्तमान नञ् से उत्तर) संपादि, अर्ह, हित, अलम् अर्थ वाले (तद्धितप्रत्ययान्त उत्तरपद को अन्तोदात्त होता है)। सम्पूच... - III. II. 142 देखें - सम्पृचानुरुष III. 1. 142 सम्पृचानुरुधाङ्यमाङ्यसपरिसृसंसृजपरिदेविसंज्वरपरिक्षिपपरिष्टपरिवदपरिदहपरिमुहदुषद्विषद्रुहदुहयुजाक्रीडविविचत्यजरजभजातिचरापचरामुवाध्याहनः - III. ii. 142 सम्पूर्वक पृची सम्पर्के, अनुपूर्वक रुधिर् आवरणे, आङ्पूर्वक यम उपरमे, आङ्पूर्वक यसु प्रयत्ने, परिपूर्वक सृ गतौ, सम्पूर्वक सृज विसर्गे, परिपूर्वक देवृ प्रयत्ले, सम् पूर्वक ज्वर रोगे, परिपूर्वक क्षिप प्रेरणे, परिपूर्वक रट परिभाषणे, परिपूर्वक वद, परिपूर्वक दह भस्मीकरणे, परिपूर्वक मुह वैचित्ये, दुष वैकृत्ये, द्विष अप्रीतौ, द्रुह् जिघांसायाम्, दुह प्रपूरणे, युजिर योगे अथवा युज समाधौ, पूर्वक क्रीड विहारे, विपूर्वक विचिर् पृथग्भावे, त्यज हानौ, र रागे, भज सेवायाम, अतिपूर्वक चर गतौ, अप सम्प्रसारणम् पूर्वक चर, मुष स्तेये, अभि, आङ् पूर्वक हन् – इन धातुओं से भी तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमान काल में घिनुण् प्रत्यय होता है)। सम्प्रतिभ्याम् - Iiii. 46 सम् एवं प्रति उपसर्ग से युक्त (ज्ञा धातु से आत्मनेपद होता है, उत्कण्ठा-पूर्वक स्मरण अर्थ न हो तो) सम्प्रदानम् - I. iv. 32 रणभूत कर्म के द्वारा जिसको अभिप्रेत किया जाये, वह कारक) सम्प्रदानसंज्ञक होता है। सम्प्रदानम् - I. iv. 44 (परिक्रयण में जो साधकतम कारक, उसकी विकल्प से) सम्प्रदान संज्ञा होती है। सम्प्रदाने - II. iii. 13 (अनभिहित) सम्प्रदान कारक में (चतुर्थी विभक्ति होती है) । सम्प्रदाने - III. iv. 73 (दाश और गोष्न कृदन्त शब्द) सम्प्रदान कारक में ( निपातन किये जाते हैं)। ... सम्प्रश्न... - III. iii. 161 देखें- विधिनिमन्त्रण III. iii. 161 सम्प्रसारणम् - I. 1. 44 (य के स्थान में हुए या होने वाले इक् की) संप्रसारण संज्ञा होती है)। सम्प्रसारणम् - III. iii. 72 (नि, अभि, उप तथा वि पूर्वक ह्वेञ् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है तथा हेञ् को) सम्प्रसारण भी होता है। सम्प्रसारणम् - Vii. 55 (षष्ठीसमर्थ त्रि प्रातिपदिक से 'पूरण' अर्थ में तीय प्रत्यय होता है तथा प्रत्यय के साथ-साथ त्रि को ) सम्प्रसारण भी हो जाता है। सम्प्रसारणम् - VI. 1. 13 (ष्य को सम्प्रसारण होता है, (यदि पुत्र तथा पति शब्द उत्तरपद हों तो, तत्पुरुष समास में) ।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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