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________________ अनन्तिके अनन्तिके - VIII. 1. 55 (आम् से उत्तर एक पद का व्यवधान है जिसके मध्य में, ऐसे आमन्त्रित सञ्चक पद को अनन्तिक न दूर, न समीप अर्थ में (अनुदात्त नहीं होता) । = ...अनन्तेषु - III. ii. 48 देखें - अन्तात्यन्ता० III. ii. 48 अनन्त्ययो: - VII. ii. 106 ( त्यदादि अंगों के) अनन्त्य = जो अन्त में नहीं है, ऐसे (तकार तथा दकार) के स्थान में (सु विभक्ति परे रहते सकारादेश होता है)। अनन्त्यस्य VII. ii. 79 (सार्वधातुक में लिङ् लकार के) अनन्त्य = में नहीं है, ऐसे (सकार) का (लोप होता है)। - अनन्त्यस्य - VIII, ii. 86 (ऋकार को छोड़कर वाक्य के) अनन्त्य = जो अन्त में न हो ऐसे (गुरुसञ्ज्ञक) वर्ण को (एक-एक करके तथा अन्त्य केटि को भी प्राचीन आचार्यों के मत में प्लुत उदात्त होता है) । • VIII. ii. 105 अनन्त्यस्य (वाक्यस्थ) अनन्त्य = जो अन्त में नहीं है ऐसे (एवं अपि ग्रहण से अन्त्य) पद की (टि को भी प्रश्न एवं आख्यान होने पर प्लुत उदात्त होता है) । अपने III. 1. 68 जो अन्त - अन्नभिन्न (सुबन्त उपपद रहते (अद् धातु से 'विट्' प्रत्यय होता है)। अनपत्ये - IV. 1. 88 (प्राग्दीव्यतीय अर्थों में विहित ) अपत्य सन्तान अर्थ से भिन्न ( द्विगुसम्बन्धी जो तद्धित प्रत्यय, उसका लुक होता है)। = अनपत्ये - VI. iv. 164 अपत्य = सन्तान अर्थ से भिन्न अर्थ में वर्तमान (अण् प्रत्यय के परे रहते भसव्वक इन्नन्त अङ्ग को प्रकृतिभाव हो जाता है)। अनपत्ये - VI. iv. 173 = अपत्य सन्तान अर्थ से भिन्न (अण्) परे रहते (औक्षम् - यहाँ टिलोप निपातन किया जाता है)। अनपादाने - VIII. 1. 48 (अबु धातु से उत्तर निष्ठा के तकार को नकारादेश होता है, यदि अच्चु के विषय में) अपादान कारक का प्रयोग न हो रहा हो तो । 29 अनपुंसकम् - II. Iv. 4 नपुंसकभिन्न (अध्वर्युक्रतु वाचकों का द्वन्द्व एकवद् होता है) । अनपुंसकस्य 1.1.42 नपुंसकलिङ्ग भिन्न (सु) की (सर्वनामस्थान संज्ञा होती है) । अनपुंसकेन (नपुंसकलिंग शब्द) नपुंसकलिंगभिन्न अर्थात् स्त्रीलिंग पुल्लिंग शब्दों के साथ (शेष रह जाता है तथा स्त्रीलिंग, पुल्लिंग शब्द हट जाते हैं, एवं उस नपुंसकलिंग शब्द को एकवत् कार्य भी विकल्प करके हो जाता है, यदि उन शब्दों में नपुंसक गुण एवं अनपुंसक गुण का ही वैशिष्ट्य हो, शेष प्रकृति आदि समान ही हो ) । — अनवक्लृप्त्यमर्षयोः - I. ii. 69 अनपेते - IV. iv. 92 (पञ्चमीसमर्थ धर्म, पथिन्, अर्थ, न्याय- इन प्रातिपदिकों से) अनुकूल अर्थ में (यत् प्रत्यय होता है ) । अनभिहिते - II. iii. 1 = अनभिहित अनुक्त- अनिर्दिष्ट (कर्मादि कारकों) में (विभक्ति होवे यह अधिकार सूत्र है)। - अनभ्यासस्य - VI. 1. 8 (लिट् के परे रहते धातु के अवयव) अभ्याससञ्चारहित (प्रथम एकाच् एवं अजादि के द्वितीय एकाच्) को (द्वित्व होता है। - - ...3-44-V. ii. 9 देखें - अनुपदसर्वान्नायानयम् V. ii. 9 अनर्थकौ - I. iv. 92 (अधि, परि शब्द) यदि अन्य अर्थ के द्योतक न हों तो (कर्मप्रवचनीय और निपातसंज्ञक होते हैं) । अनल्विधौ 1.1.55 - अल से परे विधि, अल् के स्थान में विधि अल् परे रहते विधि, अल् के द्वारा विधि - इनको छोड़कर (आदेशस्थानी के तुल्य होता है) । ... अनवः I. iv. 89 देखें प्रतिपर्यनयः 1. iv. 89 अनवक्लृप्ति... - III. iii. 145 देखें अनवक्लृप्त्यमर्षयोः III. III. 145 अनवक्लृप्त्यमर्षयोः - III. II. 145 असम्भावना तथा सहन न करना गम्यमान हो तो (किंवृत्त उपपद न हो या किंवृत्त उपपद हो तो भी धातु से कालसामान्य में सब लकारों के अपवाद लिइ तथा लुट् प्रत्यय होते हैं।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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