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________________ यस्मात् 431 याप्ये ...याच्... - VII. I. 39 देखें -सुलुक्० VII. I. 39 ...याच... -III. iii. 90 देखें- यजयाच III. iii.90 ...याच... -VII. iii.66 देखें- यजयाच० VII. iii.66 ...याचिताभ्याम् - IV. iv.21 देखें - अपमित्ययाचिताभ्याम् IV. iv. 21 ...याजकादि... - VI. ii. 150 देखें-मन्वितन्० VI. ii. 150 याजकादिभिः -II. ii.9 याजक आदि गण-पठित सुबन्तों के साथ (भी षष्ठ्यन्त सुबन्त का समास होता है और वह तत्पुरुष समास होता यस्मात् - II. iii. 11 जिससे (प्रतिनिधित्व और जिससे प्रतिदान हो, उससे कर्मप्रवचनीय के योग में 'पञ्चमी' विभक्ति होती है)। यस्य-1.1.72 जिस समुदाय के (अचों में आदि अच वृद्धिसंज्ञक हो. उस समुदाय की वृद्धसंज्ञा होती है)। यस्य-I. iv. 39 (राध तथा ईक्ष धातुओं के प्रयोग में) जिसके विषय में (विविध प्रश्न हों,उस कारक की सम्प्रदान संज्ञा होती है)। यस्य-II.i. 15 जिसका विस्तारवाची अन है उस लक्षणवाची समर्थ सुबन्त के साथ भी अनु विकल्प से समास को प्राप्त होता है और वह अव्ययीभाव समास होता है)। यस्य -II. 1.9 (जिससे अधिक हो और) जिसका (सामर्थ्य हो, उसमें कर्मप्रवचनीय के योग में सप्तमी विभक्ति होती है)। यस्य - II. iii. 37 जिसकी (क्रिया से क्रियान्तर लक्षित होवे उसमें भी सप्तमी विभक्ति होती है)। यस्य - VI. iv. 49 (हल् से उत्तर) 'य' का (लोप होता है, आर्धधातुक परे रहते)। . यस्य - VI. iv. 148 • (भसज्ञक) इवर्णान्त तथा अवर्णान्त अङ्ग का (लोप होता है, ईकार तथा तद्धित के परे रहते)। यस्य - VII: ii. 15 जिस धातु को (कहीं भी इट् विधान विकल्प से किया गया हो, उसको निष्ठा के परे रहते इडागम नहीं होता)। ...या... -VII.i.39 देखें-सुलु VII. I. 39 या-VII. 1.80 (अकारान्त अङ्ग से उत्तर सार्वधातुक के) या के स्थान में (इय आदेश होता है)। या... -VII. iii. 45 देखें-यासयो: VII. iii. 45 ...याज्ञिक... - IV. iii. 128 देखें - छन्दोगौक्थिकयाज्ञिक० IViii. 128 याज्यान्तः -VIII. ii. 90 याज्या नाम की ऋचाओं के अन्त की (टि को यज्ञकर्म में प्लुत उदात्त होता है)। याट् - VII. iii. 113 (आबन्त अङ्ग से उत्तर डित् प्रत्यय को) याट् आगम होता है। ...यति... - VIII. iv. 17 देखें - गदनद० VIII. iv. 17 ...यातूनाम् -IV.iv. 121 देखें-रक्षोयातूनाम् IV. iv. 121 यादेः - VII. iii.2 (केकय,मित्रयु तथा प्रलय अङ्गों के) य् आदि वाले भाग को (इय आदेश होता है; जित, णित, कित् तद्धित परे रहते)। यापनायाम् - V. iv.60 'अतिक्रमण' अर्थ गम्यमान हो तो (समय प्रातिपदिक से डाच् प्रत्यय होता है, कृञ् के योग में)। याप्ये - V. iii. 47 'निन्दा' अर्थ में वर्तमान (प्रातिपदिकों से पाशप प्रत्यय होता है)।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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