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________________ अत अथुच् 0 अते: -VI. ii. 191. अत्र -VI. iv. 22 अति उपसर्ग से उत्तर (अकृदन्त तथा पद शब्द को (भस्य' के अधिकारपर्यन्त) समानाश्रय अर्थात् एक ही अन्तोदात्त होता है)। निमित्त होने पर ( आभीय कार्य असिद्ध के समान होता अतौ - VI. ii. 50 तु शब्द को छोड़कर (तकारादि एवं नकार इत्सजक कृत् अत्र -VII. iv. 58 के परे रहते भी अव्यवहित पूर्वपद गति को प्रकृतिस्वर यहाँ अर्थात् सन् परे रहते पूर्व के चार सूत्रों से जो इस होता है)। इत् आदि का विधान किया है, उनके (अभ्यास का लोप अत्ति...-VII. ii.66 होता है)। - देखें - अत्यतिव्ययतीनाम् VII. ii. 66 अत्र -VIII. iii.2 अत्पूर्वस्य - VIII. iv. 21 यहाँ से आगे जिसको रु विधान करेंगे, उससे (पूर्व के (उपसर्ग में स्थित निमित्त से उत्तर) अकार पूर्व है जिससे. वर्ण को विकल्प से अनुनासिक आदेश होता है,यह तथ्य ऐसे (हन् धातु) के (नकार को णकारादेश होता है)। अधिकृत होता है)। ...अत्यन्त...-III. ii. 48 अत्रि ...-II. iv. 65 देखें- अन्तात्यन्ता० III. ii. 48 देखें - अत्रिभृगुकुत्स II. iv. 65 ...अत्यन्त...-V.ii. 11 अत्रिभृगुकुत्सवसिष्ठगोतमाङ्गिरोभ्यः - II. iv. 65 देखें-अवारपारात्यन्ताov.ii. 11 अत्रि, भृगु, कुत्स, वसिष्ठ, गोतम, अङ्गिरस्-इन अत्यन्तसंयोगे -II. I. 28 शब्दों से (तत्कृत बहुत्व गोत्रापत्य में विहित जो प्रत्यय, अत्यन्तसंयोग गम्यमान होने पर (भी कालवाची द्विती- उसका भातुकहा उसका भी लुक हो जाता है)। . . यान्तों का समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता ...(त्रिषु-IV.1.117 है और वह तत्पुरुष समास होता है)। . देखें-वत्सभरद्वाजा IV.I. 117 .. क्रिया, गुण या द्रव्य के साथ सम्पूर्णता से काल और ...अत्वत: - VI. 1. 153 अध्ववाचकों के सम्बन्ध का नाम अत्यन्त-संयोग है। देखें-कर्षात्वत: VI. 1. 153 अत्यन्तसंयोगे-II. iii.5 .. अत्यन्तसंयोग गम्यमान होने पर (काल और अध्व अत्वत: - VII. ii. 62 वाचक शब्दों में द्वितीया विभक्ति होती है)। (उपदेश में) जो धातु अकारवान (और तास के परे रहते . ...अत्यय...-II.i.6 नित्य अनिट),उससे उत्तर (थल को तास् के समान ही इट् देखें-विभक्तिसमीपसमृद्धि II.i. 6 आगम नहीं होता)। ....अत्यस्त...-II. 1. 23 अत्वसन्तस्य-VI. iv. 14 देखें-श्रितातीतपतितः II.i. 23 . (धातु-भिन्न) अतु तथा अस् अन्त वाले अङ्गकी (उपधा को भी दीर्घ होता है,सम्बुद्धिभिन्न सु विभक्ति परे रहते)। ....अत्याकार... -V. 1. 133 देखें-श्लाघात्याकारov.i. 133 अथ-अथ शब्दानुशासनम् पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी के आदि में पठित मङ्गल तथा अत्याधानम् -III. iii. 80 प्रारम्भ अर्थ का वाचक अव्यय । यहाँ से लौकिक तथा (उद्घन शब्द में) अत्याधान = काष्ठ के नीचे रखा वैदिक शब्दों का अनुशासन = उपदेश आरम्भ होता है। गया काष्ठ वाच्य हो तो (उत् पूर्वक हन् धातु से अपप्रत्यय ...अथ... -VI. ii. 144 तथा हन् को घनादेश निपातन किया जाता है,कर्तृभिन्न कारक संज्ञा विषय में)। देखें- शाथ VI. ii. 144 अत्यतिव्ययतीनाम् - VII. ii. 66 अथुच -III. iii. 89 - अद् भक्षणे,ऋगतो,व्ये संवरणे- इन अङ्गों के (थल (टु इत्संज्ञक है जिन धातुओं का,उनसे कर्तृभिन्न कारक को इट आगम होता है)। संज्ञा तथा भाव में) अथुच प्रत्यय होता है।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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